जैन ग्रन्थों में काल का अति सूक्ष्म, विस्तृत और वैज्ञानिक विभाजन भी उपलब्ध है। इस विभाजन के दो अंग हैं--प्रथम संख्यात काल तथा दूसरा औपमिक काल
संख्यात काल
आधुनिक विज्ञान ने सूक्ष्म से सूक्ष्म काल का माप निश्चित किया है। उसने एक सैकंड के भी हजारों भाग कर दिये हैं, जिनका गणितीय उपयोग किया जाता है। किन्तु जैनागमों में जो कालमान दिया है वह आधुनिक विज्ञान के कालमान से भी बहुत सूक्ष्म है। जैसे-जैन कालमान के अनुसार- काल के अत्यन्त सूक्ष्म अविभागी अंश, कल्पना से भी जिसके दो भाग न हो सकें, ऐसे सूक्ष्मातिसूक्ष्म कालांश को 'समय' कहते हैं। ऐसे असंख्यात समयों की एक आवलिका होती है। असंख्यात आवलिका का एक उच्छ्वास-निःश्वास काल, दो श्वास का एक प्राण, सात प्राणों का एक स्तोक, सात स्तोकों का एक लव, साढ़े अड़तीस लव की एक नाली या घटिका, दो घटिका (अथवा ७७ लव) का एक मुहूर्त ( ४८ मिनट) होता है। ३० मुहूर्त का एक अहोरात्र (दिन और रात) होता है । १५ अहोरात्र का एक पक्ष, दो पक्ष का एक मास, दो मास की एक ऋतु, तीन ऋतु का एक अयन, दो अयन का एक वर्ष प्रसिद्ध है। उसके पश्चात् ५ वर्ष का एक युग, बीस युग की एक शताब्दी, दस शताब्दि की एक सहस्राब्दि, १०० सहस्राब्दि की १ लक्षाब्दी , ८४०० सहस्राब्दि (८४ लक्षाब्दी) यानी ८४ लाख वर्ष का एक पूर्वांग, ८४ लाख पूर्वांग का एक पूर्व (अर्थात् - ७०५६० अरब वर्ष), ८४ लाख पूर्व का एक त्रुटितांग, उसके पश्चात् उत्तरोत्तर ८४ लाख गुणा करने से त्रुटित, अडडांग, अडड, अववांग, अवव, हूहूअंग, हूहू, उत्पलांग, उत्पल, पद्मांग, पद्म, नलिनांग, नलिन, अर्थ - निपूरांग, अर्थनिपूर आदि से लेकर शीर्ष प्रहेलिका- पर्यन्त गणित (संख्या) विधि का क्षेत्र है। अर्थात्-शीर्षप्रहेलिका तक उत्तरोत्तर ८४ लाख गुणा करने से १९४ अंक प्रमाण, जो राशि बनती है, वहीं तक गणित की सीमा है। उससे आगे की जो कालावधि वर्षों के रूप में नहीं गिनी जा सकती, उसके लिए उपमा - प्रमाण का सहारा लिया जाता है।
औपमिक काल
जब संख्यात (संख्येय) की गणना रुक जाती है, तब असंख्यात (असंख्येय) की गणना शुरू होती है। पल्योपम और सागरोपम उसी जाति के कालमान (उपमाप्रमाण) हैं।
पल्योपम और सागरोपम ये दोनों उपमा - प्रमाण हैं। पल्योपम का अर्थ यह है - अनाज वगैरह भरने के गोलाकार स्थान को पल्य कहते हैं। समय की जिस लम्बी अवधि को पल्य की उपमा दी जाती है, उसे काल-पल्योपम कहते हैं। सामान्यतया एक योजन लम्बा, एक एक योजन चौड़ा और एक योजन गहरा गोल पल्य (गड्ढा), जिसकी परिधि ३ योजन हो, एक दिन से लेकर सात दिन तक के (देवकुरु या उत्तरकुरु क्षेत्र के ) मनुष्यों के केशाग्रों (जिनका दूसरा टुकड़ा न हो सके इतने सूक्ष्म) को इतना ठसाठस भरे किं न उन्हें आग जला सके, न वायु उड़ा सके और न जल का ही उसमें प्रवेश हो सके, इतना ही नहीं, चक्रवर्ती की सेना भी उस पर से कूच कर जाए तो भी दबे नहीं। फिर उस पल्य में से 100 वर्षों में एक-एक टुकड़ा (खण्ड) निकाले जाने पर जितने सौ वर्षों में वह गड्ढा खाली हो जाए उतने काल को पल्योपम कहते हैं।
१० कोटिकोटि ( १० करोड़ x १० करोड़) पल्योपम काल को एक सागरोपम कहते हैं।
१० कोटिकोटि सागरोपम = १ उत्सर्पिणी अथवा १ अवसर्पिणी।
२० कोटिकोटि सागरोपम = १ काल चक्र
संक्षिप्त में
संख्यात काल
सूक्ष्मतम निर्विभाज्य काल = १ समय
असंख्यात् समय = १ आवलिका
संख्यात आवलिका = १ उच्छवास अथवा १ निश्वास
१ उच्छवास + १ निश्वास = १ प्राण
७ प्राण = १ स्तोक
७ स्तोक = १ लव
७७ लव = १ मुहूर्त्त
३० मुहूर्त = १ अहोरात्र
१५ अहोरात्र = १ पक्ष
२ पक्ष = १ मास
२ मास = १ ऋतु
३ ऋतु = १ अयन
२ अयन = १ संवत्सर
५ सवत्सर = १ युग
२० युग = १ शताब्दी
१० शताब्दी = १ सहस्राब्दी
१०० सहस्राब्दी = १ लक्षाब्दी
८४ लक्षाब्दी = १ पूर्वांग
८४ लक्ष पूर्वांग = १ पूर्व 70560000000000 (अर्थात् - ७०५६० अरब वर्ष) 84 Lakhs x 84 Lakhs