तत्त्वज्ञान की वैज्ञानिकता
यदि हम विचारपूर्वक देखें तो जैन धर्म का तत्त्व निरूपण बिलकुल वैज्ञानिक दिखाई देगा जैसे प्रथम जीव तत्त्व है, इस जीव तत्व से सम्बन्धित ही दूसरे आठ तत्त्व हैं। जीव तत्व मे एकेन्द्री से लगाकर अनिन्द्रिय और नारक से लगाकर इन्द्र अहमिन्द्र और सिद्ध तक के जीव है।
जीवो की शुभाशुभ परिणति के कारण ही कर्माश्रव होता है और पुण्य पापरूप फल देने वाला बन्ध होता है। इसी से तो जीव, नरक और निगोद जैसे दुख और इन्द्र अहमिन्द्र जैसे सुख पाता हुआ जन्म मरण करता रहता है। चारो गति मे भटकने वाले जीव, अपनी शुभाशुभ परिणति से कर्म पुदगल को अपनाकर शुभाशुभ बंधन से अपने को बाँध लेते हैं और उसके परिणाम स्वरूप विविध दशा को प्राप्त होकर चतुर्गति रूप संसार मे भटकते रहते हैं।
यह जीव लोक के सभी आकाश प्रदेशो मे जन्म-मरण कर चुका । अनंताअनंत कर्म वर्गणाओ को बाधकर छोड चुका और पुन २ निरन्तर बाध छोड करता रहा, औदारिक, वेक्रिय, तेजस और कार्मण शरीर अनन्त बार पा लिया। कोई कोई जीव तो आहाराक शरीर भी पा चुके इस प्रकार छ तत्त्व मे जीव अनादिकाल से बना रहा। इन छ तत्त्व से आगे बढ कर सातवे आठवे तत्व मे जो प्रवेश करते हैं, वे सम्यग्दृष्टि, ज्ञानी और सम्यगचारित्रि होते हैं।
सम्यकदृष्टि यह समझ लेता है कि जीव मैं भी हूं और मुक्तात्मा सिद्ध भगवान् भी जीव हैं। मेरे और उनके बीच इतनी महान् विषमता होने का कारण मेरा अजीव के साथ शुभाशुभ सम्बन्ध है। इस विषमता को मिटाकर उनके समान बनने के लिए मुझे सम्बन्ध के कारणो को रोकने रूप संवर तथा पुराने बन्धनो को काटने रूप निर्जरा का आश्रय लेना ही पडेगा, तभी में मुक्त होकर अंतिम तत्त्व को प्राप्त कर सकूंगा सिद्ध हो सकूंगा ऐसा दृढ विश्वास ही *सम्यग्दर्शन* है। इस प्रकार की विचारणा और श्रद्धा रखने वाला *सम्यग्दृष्टि* है।
सम्यक्त्व विमर्श