निवृत्ति ही धर्म है और जो निवृत्ति के लक्ष्य की ओर बढ़ावे, वह प्रवृत्ति भी धर्म हो सकती है। निवृत्ति से ही आत्मा उन्नत होती है अथवा यो कहिए कि ज्यो ज्यो निवृत्ति बढती है, त्यो-त्यो गुणो का विकास होता है।
मिथ्यात्व की निवृत्ति होती है तब चौथा गुणस्थान प्राप्त होता है और अविरति टलने पर पाँचवा और छठा गुणस्थान प्राप्त होता है। प्रमाद की निवृत्ति सातवाँ गुणस्थान, कषाय की बादर निवृत्ति से सूक्ष्म संपराय तक की निवृत्ति क्रमश ८ वे से १० वा गुणस्थान, मोह निवृत्ति १२ वा गुणस्थान, ज्ञानावरणादि की आत्यंतिक निवृत्ति १३ वा गुणस्थान और योग-निवृत्ति १४ वा गुणस्थान यहाँ निवृत्ति की पराकाष्ठा है।
मन वचन और काया की सर्वथा निवृत्ति यही होती है और पूर्ण रूप से संवर होता है। इस प्रकार की स्थिति प्राप्त होने पर ही सादि अनन्त (शाश्वत) सुख प्राप्त हो सकता है। इस प्रकार सिद्ध है कि धर्म,निवृत्ति प्रधान ही है और ध्येय भी यही होना चाहिए।
*सम्यक्त्व विमर्श*