जैन धर्मं में यज्ञ हवन का आध्यात्मिक स्वरुप
जैन परंपरा में धर्म के नाम पर किसी भी ऐसे क्रिया कलापों का हमेशा से निषेध ही रहा है जिससे जीव का उपघात संभावित हो। प्रभु महावीर ने उत्तराध्ययन सूत्र के १२ अध्ययन के माध्यम से हमें यज्ञ हवन का आध्यात्मिक रूप बतलाया है। इस अध्ययन में हरिकेशबल मुनि और रूद्रदेव के वार्तालाप का वर्णन है जिसमे जातिवाद, सच्चा यज्ञ, तीर्थ, जल स्नान आदि के आध्यात्मिक रूप को वर्णित किया गया है।
रुद्रदेव प्रश्न करते है :-
४३. के ते जोई? के व ते जोइठाणे? का ते सुया? किं व ते कारिसंगं?
एहा य ते कयरा सन्ति? भिक्खू! कयरेण होमेण हुणासि जोइं?
(रुद्रदेव-) हे भिक्षु ! तुम्हारी ज्योति (अग्नि) कौन-सी है? तुम्हारा ज्योति-स्थान कौन-सा है? तुम्हारी (घी आदि को आहुति डालने की) कुङछियाँ कौन-सी हैं? ( अग्नि को उद्दीप्त करने वाले ) तुम्हारे करीषांग (कण्डे) कौन-से हैं? ( अग्नि को जलाने वाले) तुम्हारे इन्धन क्या हैं? एवं शान्तिपाठ कौन-से हैं? तथा किस होम ( हवनविधि) से आप ज्योति को (आहुति द्वारा ) तृप्त (हुत) करते हैं?
४४. तवो जोई जीवो जोइठाणं जोगा सुया सरीरं कारिसंग|
कम्म एहा संजमजोग सन्ती होमं हुणामी इसिणं पसत्थं॥
(मुनि-) (बाह्याभ्यन्तरभेद वाली) तपश्चर्या ज्योति है, जीव (आत्मा) ज्योतिस्थान (अग्निकुण्ड ) है, योग (मन, वचन और काय की शुभप्रवृत्तियाँ) घी यादि डालने की कुङछियाँ हैं, शरीर (शरीर के अवयव) अग्नि प्रदीप्त करने के कण्डे हैं। कर्म इन्धन हैं, संयम के योग (प्रवृत्तियाँ) शान्तिपाठ हैं। ऐसा ऋषियों के लिए प्रशस्त जीवोपघातरहित (होने से विवेकी मुनियों द्वारा प्रशंसित) होम (होमप्रधान-यज्ञ ) में करता हूँ ।
उत्तराध्ययन सूत्र : विवेचन-युवाचार्य मधुकर मुनि जी