जैन धर्म और ईश्वरवाद

जैन दर्शन में तो ऐसा कोई ईश्वर नहीं है, जो जीव के द्वारा किये गए कर्मो का फल तय करता है प्रदान करता है। अतः जीव स्वयं ही कर्म करता है और स्वयं ही उसका फल भोगता है।

जैन धर्म और ईश्वरवाद

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जैन धर्म और ईश्वरवाद


ईश्वरवादी दर्शन ईश्वर को सृष्टि का निर्माण कर्ता के रूप में स्वीकार करते है। जीव को कर्म करने में स्वतंत्र माना है किन्तु उसका फल भोगने में परतंत्र माना है। ईश्वर कर्मो के अनुसार फल देता है।

जैन दर्शन में तो ऐसा कोई ईश्वर नहीं है, जो जीव के द्वारा किये गए कर्मो का फल तय करता है प्रदान करता है। अतः जीव स्वयं ही कर्म करता है और स्वयं ही उसका फल भोगता है। जैन धर्म में ईश्वर की जगह जिन या अरिहंत और सिद्ध को माना गया है।

जैन धर्म का किसी ईश्वर को इस संसार के निर्माता के, कर्ता के रूप में नहीं मानना ईश्वर का विरोध करना नहीं है। ईश्वर ने हमें राह दिखाई है, उस पर चलना हमारा काम है, अब यदि गिरते है तो उसके लिए हम ही जिम्मेदार है और परम लक्ष्य मोक्ष को प्राप्त करते है तो हमारा ही पुरुषार्थ है। आत्मा ही कर्ता है आत्मा ही भोक्ता है। इस संसार में कर्म करने के लिए और भोगने के लिए हम स्वयं जिम्मेदार है, ईश्वर नहीं। 

अरिहंत सिद्ध हमारे उपकारी है जो उन्होंने हमें राह बताई। जैन धर्म के तीर्थंकर, सिद्ध व अन्य महापुरुष से हमे प्रेरणा ग्रहण करते है। उपकारी के रूप में ईश्वर के गुणों का गुणानुवाद करना ही हमारी भक्ति है पर भक्ति में उनसे कुछ सांसरिक सुखो की प्राप्ति की चाह रखना भक्ति का अतिरेक है, जैन धर्म के सिद्धांतो के विपरीत है।

आज कर्म करते समय तो हम स्वयं अपने को स्वतंत्र मानते है पर शुभ अशुम कर्म फल कारण ईश्वर को मानते है। जरा सी असाता में अनायास ही निकल जाता है की भगवान तूने क्या किया। इस तरह हम पर ईश्वरवाद हावी हो रहा है। आज ईश्वर से हम सुख के याचक बन जाते है। आज हम महावीर को तो मानते है पर महावीर की वाणी को नहीं मानते है, नहीं समझते है। यदि महावीर की वाणी पर श्रद्दा रखेगे उसे आचरण में लायेगे तो हमें सांसारिक सुखो की याचना की जरुरत ही महसूस नहीं होगी।

जैन धर्म के मूल में अंहिंसा (जीव दया) रची बसी है। दया धर्मं का मूल है ऐसे जैन धर्म में सांसरिक उद्देश्य की पूर्ति के लिए हवन इत्यादि कार्य उचित नहीं है इससे अग्निकायिक जीवो की विराधना होती है। हवन जैन धर्म की परम्परा नहीं रही है। हवन के धुए से अग्निकायिक वायुकायिक जीवो की विराधना तो होती ही है साथ ही छोटे छोटे त्रसकायिक जीवो को भी हलन चलन में बाधा होती है।

आज जैन धर्मानुलम्बी अन्यमत के देवी देवताओ की और आकर्षित ना हो इस लिए जैन विधी से हवन प्रक्रिया परम्परा का प्रादुर्भाव हुआ। यदि हवन आदि ऐसे कार्य यदि किये भी जा रहे है तो कम से कम जैन धर्म को जैन धर्म की परम आत्माओं के नाम को इससे दूर ही रखे तो अच्छा है, क्योकि आज जो आप कर रहे हो वो समय के साथ परम्परा बन जाएगी। और जैन धर्म के मूल “अहिंसा” के साथ अन्याय होगा। धर्म का मूल कही कोने में छूपाने की नाकाम कोशिश इस तरह के कर्म क्रीयाकांडो के द्वारा की जा रही है जिस क्रिया से कोई लाभ प्राप्त होने वाला नहीं।

आज इस व्यवस्था का इतना प्रभाव है की हम जैन धर्म में ईश्वरवाद की कल्पना करने लगे है। बहुत लोगो कि यह जिन विपरीत भ्रान्ति मन में स्थान करने लगी है की जिनप्रभु मेरी कामनाओ की पूर्ति करेगे, और कदाचित आपके कर्मो से आपको सांसारिक लाभ प्राप्त होता भी है तो उसे आप प्रभु प्रदत्त मान कर ईश्वरवाद को स्वीकार कर कर्मवाद को नकारने लगते है जो कदाचित उचित नहीं है। वही दुःख की प्राप्ति पर भी आप उस ईश्वर को इसके लिए जिम्मेदार मानने लगते है।

आज जैन धर्म के अनुयायियो में भी याचक भाव बढता जा रहा है। आज हम अन्य धर्म के अनुयायियो की तरह जगह जगह जा कर अपनी सांसारिक संसाधनो की पूर्ति के लिए (जो जीव को इस संसार में बांधे रखती है) हाथ जोड़ कर खड़े हो जाते है। हम अपने व्यापार में भी इन्हें हिस्सेदार तक बना लेते है। यह अज्ञान हमारे भव बढाने वाला है इसे हमें समझना होगा। कितना उचित है अपने कर्मो के लिए ईश्वर को दोष देना। आज जो भी मेरी परिस्थिति है उसके लिए में स्वयं ही जिम्मेदार हु ये हमें समझना होगा।

अन्य धर्मो से प्रभावित हो कर जैन श्रावक अपनी जैन परम्परा में नए प्रयोग करते है महावीर के द्वारा बताये गए बारह तप परम्परा को भूल कर अन्य धर्म की तरह उपवास फलाहार आदि रख कर उसमे धर्म समझते है। जैन धर्म में भी अधिष्ठायक देवी-देवता के नाम पर सांसारिक लाभ के लिए मंत्र जाप करते हुए, हवन पूजन करते समय कर्म ग्रन्थ के सिद्धांतो को भूल जाते है की जो कर्म सत्ता में है वे अबाधाकाल पूर्ण होने पर उदय में आयगे।

जैन धर्म ने कभी ईश्वर को नकारा नहीं है, वरन जैन धर्म में ईश्वर को अरिहंत रूप में उपकारी माना है बस ईश्वरवाद से ऊपर कर्मवाद को रखा है। आत्मा ही कर्ता है आत्मा ही भोक्ता है। इस संसार में कर्म करने के लिए और भोगने के लिए हम स्वयं जिम्मेदार है, ईश्वर नहीं।

समय के साथ जो कुरीतिया जैन धर्म के साथ जुड़ कर परम्परा बनती जा रही है उससे सामान्य जन मानस पर ईश्वर को कर्ता के रूप में मानने के भाव बढते जा रहे है जो जैन धर्म के मूल सिद्धांतो के साथ अन्याय है। इन कुरीतियो को समझ कर इससे बचना ही सच्चे श्रावक का कर्तव्य है।


राजकुमार जैन (हरणिया)
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