श्रमण धर्म
साधु-साध्वियों का आत्म-विकास करके मुक्ति प्राप्त कराने वाली साधना को 'श्रमण-धर्म' कहते हैं।
इसके दस भेदों का वर्णन स्थानांग सूत्र के १० वें स्थान में इस प्रकार किया है।
१. क्षमा - क्रोध पर विजय प्राप्त कर शांत रहना।
२. मुक्ति - लोभ-लालच से मुक्त रहना।
३. आर्जव -माया-कपट का त्याग कर सरल बनना।
४. मार्दव - मान-अहंकार का त्याग कर नम्र होना ।
५. लाघव- लघुता - हलकापन । वस्त्रादि बाह्य उपधि और संसारियों के स्नेह रूपी आभ्यंतर भार से हलका रहना।
६. सत्य - असत्य से सर्वथा दूर रहना और आवश्यक हो तब सत्य एवं हितकारी वचनों का व्यवहार करना ।
७. संयम - मन, वचन और काया की सावद्य प्रवृत्ति का त्याग करना ।
८. तप - इच्छा का निरोध कर बारह प्रकार का सम्यक् तप करना ।
९. त्याग - परिग्रह और संग्रह वृत्ति से मुक्त रहना। ममता का त्याग करना ।
१०. ब्रह्मचर्य - नववाड़ सहित विशुद्ध ब्रह्मचर्य का पालन करना ।