आचारांग सूत्र (प्रथम श्रुतस्कन्ध-८४)
गोत्रवाद का त्याग
से असई उच्चागोए, असई णीयागोए।
णो हीणे, णो अइरित्ते णो पीहए,
इइ संखाए को गोयावाई?
को माणावाई?
कंसि वा एगे गिज्झे।
भावार्थ - यह जीव अनेक बार उच्च गोत्र में और अनेक बार नीच गोत्र में जन्म ले चुका है इसलिए नीच गोत्र में हीनता नहीं और उच्च गोत्र में विशिष्टता नहीं, ऐसा जान कर उच्च गोत्र की स्पृहा - इच्छा न करे। इस उक्त तथ्य को जान लेने पर कौन पुरुष गोत्रवादी होगा अर्थात् उच्च गोत्र का मद कर सकता है तथा कौन मानवादी होगा अर्थात् अभिमान कर सकता है अथवा कौन किसी एक स्थान या गोत्र में आसक्त हो सकता है।
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में गोत्रवाद का निरसन करते हुए यह स्पष्ट किया गया है कि यह जीव अनेक बार उच्च गोत्र और नीच गोत्र प्राप्त कर चुका है फिर कौन ऊंचा और कौन नीचा? ऊँच-नीच की भावना मात्र एक अहंकार (मद) है। अहंकार कर्म बंध का कारण है अतः गोत्र मद का त्याग कर देना चाहिये।