भगवान् महावीर और देवदूष्य वस्त्र
आचारांग सूत्र
संवच्छरं साहियं मासं, जंण रिक्कासि वत्थगं भगवं।
अचेलए तओ चाई, तं वोसज वत्थमणगारे॥
भावार्थ - एक वर्ष तथा एक मास से कुछ अधिक काल तक भगवान् ने उस वस्त्र का त्याग नहीं किया था फिर अनगार और त्यागी भगवान् महावीर स्वामी उस वस्त्र का त्याग करके अचेलक - वस्त्र रहित हो गये।
विवेचन - इस गाथा में यह स्पष्ट बतला दिया गया है कि दीक्षा लेते समय इन्द्र ने भगवान् के कंधे पर एक देवदूष्य वस्त्र रखा था वह तेरह महीने से कुछ अधिक समय तक उनके कंधे पर रहा फिर वह स्वतः गिर पड़ा। भगवान् से उसे वापिस उठाया नहीं तब से भगवान् सर्वथा अचेलक (निर्वस्त्र) हो गये।
श्रमण भगवान् महावीर स्वामी की दानवीरता बतलाने के लिए कुछ लोग ऐसा कहते हैं कि - एक गरीब ब्राह्मण सोमशर्मा ने भगवान् के पास आकर मांगणी की तब भगवान् ने उस वस्त्र में से आधा फाड़ कर ब्राह्मण को दे दिया और आधा अपने पास रख लिया। उनका यह कहना आगमानुकूल नहीं है बल्कि आगम विरुद्ध है। दूसरी बात यह है कि यदि महावीर की दानवीरता ही बतलाना उन्हें इष्ट थो तो पूरा का पूरा वस्त्र दे देते। आधा अपने पास रखना और आधा वस्त्र फाड़ कर देना, यह तो कृपणता को सूचित करता है। अतः वस्त्र फाड़ कर आधा ब्राह्मण को देना, यह बात आगम विरुद्ध है।
भगवान महावीर के जैन परंपरा मे अब कई भेद आ चुके हैं। सबकी अपनी अपनी मान्यता है। इन भेदों में ना उलझकर ज्ञानी जानो को अपनी अपनी परंपरा अनुसार मोक्ष मार्ग की आराधना करनी चाहिए।