पाँच महाव्रत
जैन साधुओं ने पाँच महाव्रत बतलाये हैं. जो प्रत्येक साधु को, चाहे वह छोटा हो या बड़ा अवश्य पालन करने होते हैं
(१) अहिंसा :
मन से, वचन से, शरीर से किसी भी चीज की हिंसा न स्वयं करना, न दूसरों से करवाना, न करने वालों का अनुमोदन = समर्थन करना।
(२) सत्य :
मन से, वचन से, शरीर से न स्वयं झूठ न बोलना, न दूसरों से बुलवाना न बोलने वालों का अनुमोदन करना।
(३) अचौर्य :
मन से, वचन से, न स्वयं चोरी करना, न दूसरों से करवाना, न करने वालों का अनुमोदन करना।
(४) ब्रह्मचर्य :
मन से, वचन से, शरीर से मैथुन = व्यभिचार न स्वयं सेवन करना, न दूसरों से करवाना, न करने वालों का अनुमोदन करना।
(५) अपरिग्रह:
मन से, वचन से, शरीर से परिग्रह = धन आदि न स्वयं रखना, न दूसरों से रखवाना, न रखने वालों का अनुमोदन करना।
जैन साधु का जीवन तप और त्याग की सच्ची तस्वीर होता है। इतने कठोर नियमों का पालन हर कोई नहीं कर सकता।
यही कारण है कि जैन साधु संख्या में बहुत थोड़े हैं, जब कि देश में हर तरफ साधुओं की भरमार है। अतः हर किसी को गुरु नहीं बना लेना चाहिए।
कहा है
गुरु कीजे जान कर, पानी पीजे छान कर।
जैन धर्म का गुरुत्व केवल साम्प्रदायिक वेशभूषा तथा बाह्य क्रियाकाण्ड में ही सीमित नहीं है। जैन धर्म आध्यात्मिक धर्म है, अतः उसका गुरुत्व भी आध्यात्मिक भाव ही है। बिना किसी देश और काल के बन्धन से, बिना किसी साम्प्रदायिक अभिनिवेश के जो भी आत्मा अहिंसा और सत्य आदि की पूर्ण साधना में संलग्न है, अन्तरंग में वीतराग भाव की ज्योति जला रहा है. वह कोई भी हो, जैन-धर्म का गुरु है।
पुरुषों के समान स्त्रियाँ भी पाँच महाव्रत पालती हैं। वे साध्वी कहलाती हैं। साध्वी को भी जैन धर्म गुरु कोटि में मानता है।