आगम-संकलन हेतु वाचनाएँ

श्रमण भगवान् महावीर के परिनिर्वाण के पश्चात् आगम-संकलन हेतु पांच वाचनाएं हुई हैं।

आगम-संकलन हेतु वाचनाएँ

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आगम-संकलन हेतु वाचनाएँ

श्रमण भगवान् महावीर के परिनिर्वाण के पश्चात् आगम-संकलन हेतु पांच वाचनाएं हुई हैं।

प्रथम वाचना - वीरनिर्वाण के १६० वर्ष पश्चात् पाटलिपुत्र में द्वादशवर्षीय भीषण दुष्काल पड़ने के कारण श्रमणसंघ छिन्न-भिन्न हो गया। अनेक बहुश्रुतधर श्रमण क्रूर काल के गाल में समा गये। अनेक अन्य विघ्न बाधाओं ने भी यथावस्थित सूत्र परावर्तन में बाधाएं उपस्थित की। आगम ज्ञान की कड़ियां-लड़ियां विशृंखलित हो गई। दुर्भिक्ष समाप्त होने पर विशिष्ट आचार्य, जो उस समय विद्यमान थे, पाटलिपुत्र में एकत्रित हुए। ग्यारह अंगों का व्यवस्थित संकलन किया गया। बारहवें दृष्टिवाद के एकमात्र ज्ञाता भद्रबाहु स्वामी उस समय नेपाल में महाप्राणध्यान की साधना कर रहे थे। संघ की प्रार्थना से उन्होंने बारहवें अंग की वाचना देने की स्वीकृति दी। मुनि स्थूलभद्र ने दस पूर्व तक अर्थसहित वाचना ग्रहण की। ग्यारहवें पूर्व की वाचना चल रही थी तभी स्थूलभद्र मुनि ने सिंह का रूप बनाकर बहिनों को चमत्कार दिखलाया । जिसके कारण भद्रबाहु ने आगे वाचना देना बंद कर दिया। तत्पश्चात् संघ एवं स्थूलभद्र के अत्यधिक अनुनय-विनय करने पर भद्रबाहु ने मूलरूप से अन्तिम चार पूर्वो की याचना दी, अर्थ की दृष्टि से नहीं। शाब्दिक दृष्टि से स्थूलभद्र चौदह पूर्वी हुए किन्तु अर्थ की दृष्टि से दसपूर्वी ही रहे।

द्वितीय वाचना - आगम-संकलन का द्वितीय प्रयास ईस्वी पूर्व द्वितीय शताब्दी के मध्य में हुआ। सम्राट खारवेल जैनधर्म के परम उपासक थे। उनके सुप्रसिद्ध 'हाथीगुफा' अभिलेख से यह सिद्ध हो चुका है कि उन्होंने उड़ीसा के कुमारी पर्वत पर जैनमुनियों का एक संघ बुलाया और मौर्यकाल में जो अंग विस्मृत हो गये थे, उनका पुनः उद्धार कराया था। हिमवंत थेरावली नामक संस्कृत प्राकृत मिश्रित पट्टावली में भी स्पष्ट उल्लेख है कि महाराजा खारवेल ने प्रवचन का उद्धार करवाया था।

तृतीय वाचना - आगमों को संकलित करने का प्रयास वीरनिर्वाण ८२७ से ८४० के मध्य हुआ। उस समय द्वादशवर्षीय भयंकर दुष्काल से श्रमणों को भिक्षा मिलना कठिन हो गया था। श्रमणसंघ की स्थिति गंभीर हो गई थी। विशुद्ध आहार की अन्वेषणा-गवेषणा के लिए युवक मुनि दूर-दूर देशों की ओर चल पड़े। अनेक वृद्ध एवं बहुश्रुत मुनि आहार के अभाव में आयु पूर्ण कर गये। क्षुधा परीषह से संत्रस्त मुनि अध्ययन, अध्यापन, धारण और प्रत्यावर्तन कैसे करते ? सब कार्य अवरुद्ध हो गये। शनैः शनैः श्रुत का हास होने लगा। अतिशायी श्रुत नष्ट हुआ। अंग और उपांग साहित्य का भी अर्थ की दृष्टि से बहुत बड़ा भाग नष्ट हो गया। दुर्भिक्ष की समाप्ति पर श्रमणसंघ मथुरा में स्कन्दिलाचार्य के नेतृत्व में एकत्रित हुआ। जिन श्रमणों को जितना जितना अंश स्मरण था उसका अनुसंधान कर कालिक श्रुत और पूर्वगत श्रुत के कुछ अंश का संकलन हुआ। यह वाचना मथुरा में सम्पन्न होने के कारण माथुरी वाचना के रूप में विश्रुत हुई। उस संकलित श्रुत के अर्थ की अनुशिष्टि आचार्य स्कन्दिल ने दी थी अत: उस अनुयोग को स्कन्दिली वाचना भी कहा जाने लगा।

नंदीसूत्र की चूर्णि और वृत्ति के अनुसार माना जाता है कि दुर्भिक्ष के कारण किंचिन्मात्र भी श्रुतज्ञान तो नष्ट नहीं हुआ किन्तु केवल आचार्य स्कन्दिल को छोड़कर शेष अनुयोगधर मुनि स्वर्गवासी हो चुके थे। एतदर्थ आचार्य स्कन्दिल ने पुनः अनुयोग का प्रवर्तन किया जिससे प्रस्तुत वाचना को माथुरी वाचना कहा गया और सम्पूर्ण अनुयोग स्कन्दिल संबंधी माना गया।

चतुर्थ वाचना - जिस समय उत्तर पूर्व और मध्यभारत में विचरण करने वाले श्रमणों का सम्मेलन मथुरा में हुआ था उसी समय दक्षिण और पश्चिम में विचरण करने वाले श्रमणों की एक वाचना (वीर निर्वाण सं.८२७-८४०) वल्लभी (सौराष्ट्र) में आचार्य नागार्जुन की अध्यक्षता में हुई। किन्तु वहाँ जो श्रमण एकत्रित हुए थे उन्हें बहुत कुछ श्रुत विस्मृत हो चुका था। जो कुछ उनके स्मरण में था, उसे ही संकलित किया गया। यह वाचना वल्लभी वाचना या नागार्जुनीय वाचना के नाम से अभिहित है।

पंचम वाचना - वीरनिर्वाण की दसवीं शताब्दी ( ९८० या ९९३ ई. सन् ४५४-४६६ ) में देवर्द्धिगणी श्रमाश्रमण की अध्यक्षता में पुनः श्रमणसंघ वल्लभी में एकत्रित हुआ। देवर्द्धिगणी ११ अंग और एक पूर्व से भी अधिक सूत्र के ज्ञाता थे। स्मृति की दुर्बलता, परावर्तन की न्यूनता, धृति का हास और परम्परा की व्यवच्छिति आदि अनेक कारणों से श्रुत साहित्य का अधिकांश भाग नष्ट हो गया था। विस्मृत श्रुत को संकलित व संग्रहीत करने का प्रयास किया गया। देवर्द्धिगणी ने अपनी प्रखर प्रतिभा से उसको संकलित कर पुस्तकारुढ किया। पहले जो माथुरी और वल्लभी वाचनाएँ हुई थी, उन दोनों वाचनाओं का समन्वय कर उनमें एकरूपता लाने का प्रयास किया गया। जिन स्थलों पर मतभेद की अधिकता रही वहाँ माथुरी वाचना को मूल में स्थान देकर वल्लभी वाचना के पाठों को पाठान्तर में स्थान दिया। यही कारण है कि आगमों के व्याख्याग्रन्थों में यत्र तत्र 'नागार्जुनीयास्तु पठन्ति' इस प्रकार निर्देश मिलता है।

आगमों को पुस्तकारुढ करते समय देवर्द्धिगणी ने कुछ मुख्य बातें ध्यान में रखी। आगमों में जहाँ-जहाँ समान पाठ आये हैं उनकी वहाँ पुनरावृत्ति न करते हुए उनके लिए विशेष ग्रन्थ या स्थल का निर्देश किया गया जैसे-'जहा उववाइए, जहा पण्णवणाए'। एक ही आगम में एक बात अनेक बार आने पर जाव शब्द का प्रयोग करके उसका अन्तिम शब्द सूचित कर दिया है जैसे 'णागकुमारा जाव विहरंति' तेणं कालेणं जाव परिसा णिग्गया। इसके अतिरिक्त भगवान् महावीर के पश्चात् की कुछ मुख्य-मुख्य घटनाओं को भी आगमों में स्थान दिया। यह वाचना वल्लभी में होने के कारण 'वल्लभी वाचना' कही गई। इसके पश्चात् आगमों की फिर कोई सर्वमान्य वाचना नहीं हुई। वीरनिर्वाण की दसवीं शताब्दी के पश्चात् पूर्वज्ञान की परम्परा विच्छिन्न हो गई।

उक्त रीति से आगम-साहित्य का बहुतसा भाग लुप्त होने पर भी आगमों का कुछ मौलिक भाग आज भी सुरक्षित है।

पुस्तक जीवाजीवाभिगम सूत्र  (संपादक युवाचार्य श्री मधुकरमुनि) से साभार 

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