निदान-आत्म कल्याण साधना में बाधक
निदान जैन धर्म का एक पारिभाषिक शब्द है। जब मोक्ष-मार्ग का साधक अपने जीवनभर की तपस्या का फल “मुझे अमुक प्रकार की सांसारिक ऋद्धि मिले" ऐसी चाह-इच्छा करता है तो उसे निदान कहते हैं। अर्थात् “तप के उपलक्ष्य में भौतिक ऋद्धि प्राप्त करने का संकल्प" निदान है। दूसरे शब्दों में निदान, लाखों-करोड़ों के मूल्य वाली वस्तु को एक कोड़ी में बेच देना है।
निदान आत्म-कल्याण-साधना में बाधक है। जब तक उसकी पूर्ति नहीं होती तब तक मोक्ष-प्राप्ति तो क्या, सम्यक्त्व मिलना भी दुर्लभ है। वह महा इच्छा वाला होने से निदानकर्ता महारम्भी, अधर्मी होता है, जिससे संसार में भटकता है।
दशाश्रुतस्कन्ध में निदान करने के नौ रूप बतलाये हैं, जो इस प्रकार हैं
1. कोई साधु, किसी समृद्धिशाली पुरुष (चक्रवर्ती) को देखकर उसकी ऋद्धि प्राप्त करने के लिये निदान करता है।
2. कोई साध्वी, किसी ऋद्धिवन्त स्त्री (श्री देवी) को देखकर उसके सुख प्राप्त हेतु निदान करती है।
3. कोई साधु, पुरुषपना दुःखदायी है, अतः स्त्री बनने के लिये निदान करता है।
4. कोई साध्वी, स्त्रीपने की कठिनाई को देखकर पुरुष के सुखों का भोग करने के लिये निदान करती है।
5. कोई मनुष्य के काम-भोगों को अध्रुव, अशाश्वत व अनित्य समझकर देवरूप में उत्पन्न होने तथा दैवीय सुख भोगने के लिये निदान करते हैं।
6. देव भव में अपनी देवी को वश में करके या वैक्रिय रूप बनाकर सुख भोगने के लिये निदान करना।
7. देव भव में अपनी देवी के साथ सुख भोगने के लिये निदान करना।
8. अगले जन्म में श्रावक बनने हेतु निदान करना।
9. अगले जन्म में साधु बनने हेतु निदान करना।
प्रथम चार निदानों वाला जीव केवली प्ररूपित धर्म नहीं सुन सकता, क्योंकि इन निदानों का फल पाप रूप होता है तथा नरक में दुःख भोगना पड़ता है।
पाँचवें निदान वाला जीव धर्म-श्रवण कर सकता है, किन्तु दुर्लभ बोथि होता है।
छठे निदान वाला जीव जिनधर्म को सुनकर, समझकर भी अन्य धर्म में रुचि रखता है।
सातवें निदान वाला, दर्शन श्रावक एवं आठवें निदान वाला, व्रती श्रावक हो सकता है, परन्तु संयम अंगीकार नहीं कर पाता।
इसी तरह नवमें निदान वाला संयमी होकर भी यथाख्यात चारित्र को प्राप्त न कर सकने के कारण सिद्ध-बुद्ध और मुक्त नहीं हो सकता।