महावीर का जन्म-महोत्सव

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महावीर का जन्म-महोत्सव

बिहार देश के अन्तर्गत क्षत्रिय कुण्डग्राम में भगवान पार्श्वनाथ को श्रमण परम्परा के उपासक राजा सिद्धार्थ राज्य करते थे। उनकी रानी त्रिशला वैशाली नरेश चेटक की पुत्री थीं। रानी त्रिशला ने १४ स्वप्न देखे। उन स्वप्नों को देखकर रानी जागी। वह अपने पति के कक्ष में आई। वह प्रसन्नचित्त थीं। उसने राजा से अपने स्वप्नों का वर्णन किया। राजा ने कहा-''देवी, तुमने कल्याणकारी स्वप्न देखे है। इनके फलस्वरूप हमें अर्थ, भोग, पुत्र व सुख की प्राप्ति होगी और राज्य में भी अभिवृद्धि होगी। कोई महान आत्मा का जन्म होगा।' सिद्धार्थ राजा के मुख से स्वप्न का फल सुन रानी संतुष्ट हई। राजा के पास से उठकर वह अपने शयनागार में आई। मांगलिक स्वप्न कही निष्फल न चले जाये, एतदर्थ शेष रालि अध्यात्म जागरण में व्यतीत की। सुबह को राजा सिद्धार्थ उठे। उन्होंने प्रातःकाल के कार्य सम्पन्न किये। सुसज्जित होकर सभाभवन में आये। राजा सिद्धार्थ ने रानी त्रिशला के सभाभवन में बैठने की स्वतन्त्र व्यवस्था करवाई।

फिर स्वप्न-पाठकों को राजसभा में आमन्त्रित किया। राजा ने उनका अभिवादन स्वीकार करते हुए रानी त्रिशला के द्वारा देखे १४ स्वप्नों का फल पूछा। सभी स्वन-पाठकों ने आपस में विचार-विमर्श किया। ये यह जानते थे कि राजा के सामने सोच-समझकर बोलना चाहिए। इसी विधि का पालन करते हुए उन्होंने रानी द्वारा देखे स्वप्नों का विश्लेषण किया। ग्रन्थों से उसका मिलान किया। फिर कहा-'हे राजन् ! हमारे स्वप्न-शास्त्र में ४२ स्वप्न सामान्य फल देने वाले और ३० स्वप्न उत्तम फल देने बाले महास्वप्न कहे गये हैं। इस प्रकार कुल ७२ स्वप्न हैं। तीर्थकर और चक्रवर्ती की माताएँ इनमें से १४ स्वप्न देखती है। वासुदेव की सात, बलदेव की चार, माण्डलिक राजा की माता एक स्वप्न देखती है।'

आपकी महारानी ने १४ महास्वप्न देखे हैं। इससे अर्थ-लाभ, पुत्र-लाभ, सुख-लाभ और राज्य-लाभ होगा। नो मास और साढ़े सात अहोरात्रि व्यतीत होने पर कुलवंत, कुलदीपक, कुलकिरीट, कुलतिलक, सर्वांग सुन्दर चन्द्र के समान योग्य आकृति वाला, कान्त प्रियदर्शी और सुरूप पुत्र को वह जन्म देगी। यह पुल लक्षणों और व्यंजनों से युक्त होगा। शैशव समाप्त कर परिपक्व ज्ञान वाला होगा, जब यह यौवन में प्रवेश करेगा तो दानवीर, पराक्रमी और चारों दिशाओं का अधिशास्ता, चक्रवर्ती या चार गति का अन्त करने वाला तीर्थकर होगा।

भगवान महावीर का जीव गर्भ में था, तो वह तीन ज्ञान का धारक था। उसने सोचा-'मेरे हिलने-जुलने से मेरी माता को कष्ट होता है। मुझे इसमें निमित्त नहीं बनना चाहिए। यह सोचकर वह निश्चल हो गये। हिलना-डूलना बन्द कर दिया, अकम्प बन गये। सारे अंगों को सिकोड़ लिया। इस बात से माता लिशला को बहुत चोट पहुँची। उसने सोचा-'क्या किसी देव ने मेरा गर्भ अपहरण कर लिया है? क्या वह मर गया है? क्या वह गल गया है? विविध आशंकाओं से त्रिशला को हृदयाघात पहुंचा। वह रोने लगी, फिर इसी गम में मूर्मित होकर गिर पड़ी। परिचारिकाओं ने उपचार किया। फिर रानी से उनकी अस्वस्थता का कारण पूछा। रानी ने अपने गर्भ के जीव की क्रिया के बारे में बताया- मेरा गर्भस्थ जीव न हिलता है न छुलता है, उसका स्पन्दन भी बन्द हो गया है।"

यह सुनकर महल में शोर मच गया। घर में दास-दासी रानी के गर्भस्थ जीव की कुशलता मांगने लगे। महाराजा -सिद्धार्थ स्वयं पधारे। उन्होंने ज्योतिषियों से इसका कारण पूछा। पर जल्द ही सब सामान्य हो गया। भगवान महावीर के जीव से अपनी माता का शोक देखा न गया। उन्होंने गर्भ में यह प्रतिज्ञा की कि जब तक मेरे माता-पिता जीवित रहेंगे, तब तक मैं साधु नहीं बनूंगा। कुछ समय के पश्चात् महावीर के जीय ने हिलना-डूलना शरू किया। माता के चेहरे पर मुस्कराहट दौड आई। यह घटना महाबीर के गर्भ में आने के साढ़े छह महीने की है। इस घटना का महावीर के जीव पर गहरा असर हुआ। अभी तो मैं गर्भ में हूँ, माँ ने मेरा मुंह नहीं देखा, फिर भी माता को मेरे से इतना मोह है। जब मैं उनके जीवनकाल में साधु बनूँगा तो कितना दुःख होगा'-यही सोच भगवान ने गर्भ में प्रतिज्ञा धारण की।

इस घटना का वर्णन कल्पसूत, आवश्यकचूर्णि, चउपन्नमहापुरिस्थरियं, महावीरचरियं, त्रिषष्टिशलाकापुरुष चरित, विशेषायापकभाष्य में उपलब्ध होता है। पर आचारंग, आवश्यकनियुक्ति, पउमचरिय व दिगम्बर ग्रन्थों में इसका वर्णन नहीं मिलता है।

इस प्रकार रानी त्रिशला ने महावीर के जीव को वात्सल्य भाव से पाला। जब भगवान का जीव गर्भ में आया। धन-धान्य की वृद्धि होने लगी। शकेन्द्र के आदेश से वैश्रमण जृम्भक देवों के द्वारा अटूट धन राजा सिद्धार्थ के भण्डार में पहुंचाया गया। गर्भधारण के ६ मास पूर्व ही देवगण ने तीर्थकर के माता-पिता के राजप्रसाद पर रत्नों की वृष्टि करनी शुरू कर दी।

रानी त्रिशला का दोहद- गर्भ के समय माता त्रिशला को कई दोहद उत्पत्र हुए जैसे कि मैं अपने हाथों से दान सद्गुरु को आहार प्रदान का देश में अमारि की घोषणा करवाऊ। समुद्र, चन्द्र और पीयुष का पान कर, उत्तम वस्त्र धारण करु।

कल्पसूल की कल्पलता वृत्ति के अनुसार त्रिशला रानी को यह दोहद उत्पन्न हुआ कि मैं इन्द्राणी के कुण्डल पहनूं। यह दोहद पूरा होना असम्भव था। दोहद पूरा न होने के कारण वह दुःखी रहने लगी। इन्द्र का आसन कम्पित हुआ। उसने अवधिज्ञान से जाना। अपनी शक्ति से दिव्य नगर का निर्माण पर्वत पर किया। यह वहाँ सपरिवार रहने लगा। राजा सिद्दार्थ को ज्ञात होने पर वह ससैन्य इन्द्र के पास आया और कुण्डलों की याचना की। इन्द्र ने उन कुण्डलों को देने से इन्कार किया। दोनों राजाओं में युद्ध हुआ। इस युद्ध में इन्द्र जानबूझकर हार गया। किले पर सिद्धार्थ का अधिकार हो गया। इन्द्राणी के कानों के कुण्डल छीनकर रानी का दोहद पूरा हुआ।


श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है "मासानां मधुमासोस्मि!'-मैं महीनों में माधव मास-चैत्र हूँ और ऋतुओं में बसन्त।

आज से २६०० वर्ष पूर्व इसी तरह का मास था। भारत में भगवान ऋषभदेव, पचन पुन हनुमान भगवान राम व भगवान महावीर का जन्म इसी मास में हुआ था। कल्पसूत्र में आचार्य भद्रबाहू स्वामी ने कहा है- 'नो महीने साढ़े सात दिन पूर्ण होने पर हस्तोत्तरा नक्षल के योग में त्रिशला क्षत्रियाणी ने आरोग्यपूर्वक पुत्र को जन्म दिया। वह देवताओं की भांति जरायु-रुधिर व मल से रहित थे। उनके जन्म पर सारा संसार प्रकाश से जगमगा उठा था। शीतल, मन्द, सुगन्धित, दक्षिण पवन चल रहा था। सभी दिशाएं शान्त और विशुद्ध थीं। शकुन जय-विजय के सूचक थे।

भगवान महावीर के जन्म के समय छप्पन दिक्कुमारियाँ अपनी परम्परा अनुसार सूतिका कर्म हेतु आई। उन्होंने जन्म-महोत्सव मनाया और अपने स्थान पर चली गई। भगवान महावीर का जन्म होते ही शकेन्द्र का सिंहासन कम्पित हआ। उसने अवधिज्ञान से देखा-"भगवान महावीर का जन्म हो गया है। वह बहुत प्रसन्न हुआ। वह अनेक देव-देवियों के परिवार के साथ क्षलियकुण्ड ग्राम में आया। उसके साथ भवनपति, बाणव्यन्तर, ज्योतिष और वैमानिक देव उनके इन्द्र और देवगण भी आये। सब देवों में होड़ लग गई।

सर्वप्रथम शकेन्द्र ने भगवान को और माता त्रिशला को तीन बार प्रदक्षिणा कर नमस्कार किया। महावीर का एक प्रतिबिम्ब बनाकर माता के पास रखा। अवस्वपिनी निद्रा में माता को सुलाकर महावीर को मेरु पर्वत के शिखर पर से गये। इसी तरह से मिलता-जुलता वर्णन आचारांगसूत्र में भी उपलब्ध होता है। आचार्य भद्रबाहु स्वामी के कल्पसूत्र व उसकी टीकाओं में इस घटना का सुन्दर उल्लेख हुआ है। जब सभी देव-देवियाँ अपने विमानों सहित इकट्ठे होने लगे, स्वर्ग में घण्टे बजने लगे. अन्तिम तीर्थकर भगवान महावीर ने जन्म ले लिया है, ऐसी घोषणाएँ होने लगी। सभी देव-देवी अपने विमानों में इकड़े होकर भगवान महावीर का जन्म-महोत्सव मनाने लगे।

इस प्रकार ईसा से ५९९ वर्ष पूर्व चेत्र सुदी त्रयोदशी को प्रभु का जन्म रानी त्रिशला व पिता राजा सिद्धार्थ के पहाँ हआ।

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