सत्य की महिमा एवं उसका प्रभाव
सत्य की महिमा स्थान-स्थान पर गाई गई है। हर धर्म-शास्त्रकार ने सत्य को श्रेष्ठ धर्म माना है।
एक बार महाराज श्रेणिक व राजकुमार अभय रात्रि के समय जनता का हाल जानने हेतु गश्त लगा रहे थे। ठीक उसी समय अचानक रास्ते में एक सत्यवक्ता चोर मिला । तब मगधेश ने पूछा-तू कौन है? कहाँ जा रहा है? उस निर्भीक सत्यवादी ने कहा-मैं चोर हूँ और चोरी करने के लिए राजभण्डार में जा रहा हूँ। क्योंकि गरीबों के यहाँ चोरी करने से उन्हें भयंकर पीड़ा होती है और घर के बाल बच्चे रोटी-रोटी के लिए मोहताज हो जाते हैं, अत: मैं गरीबों के यहाँ नहीं, अमीरों के यहाँ चोरी करने को जा रहा हूँ। अभय कुमार ने सोचा-कोई सिरफिरा है। ऐसा कहकर वे पिता-पुत्र दोनों आगे बढ़ गये।
चोर ने भी अपना काम प्रारम्भ किया। राजभण्डार में पहुंचकर रत्नों के दो डिब्बे चुरा लिये और घर की ओर बढ़ चला। उसी रास्ते में पुनः राजभवन में लौटते समय राजा व राजकुमार उस चोर को मिले। राजा ने पूछा कौन ? उसने उत्तर देते हुए कहा - हुजूर! मैं चोर हूँ। कहाँ गया व क्या लाया ? चोर ने कहा - मैंने खजाने में चोरी करके रत्नों के दो डिब्बे चुराए हैं। राजकुमार ने तमक कर कहा जा-जा रास्ता पकड़ पगले कहीं के । चोर के हृदय की प्रसन्नता का पारावार नहीं था। सत्य की मुक्त कण्ठ से महिमा गाता हुआ चोर अपने घर को कुशलक्षेम पूर्वक पहुँच गया।
प्रातःकाल राजभण्डार में पहुँचकर कोषाध्यक्ष ने देखा कि रत्नों के दो डिब्बे गायब हैं। खजांची ने मन ही मन चिन्तन किया कि चोरी तो निश्चित हुई है, फिर मौके का फायदा मुझे भी उठा लेना चाहिए। यह सोचकर उसने भी रत्नों के दो डिब्बे उठाकर राजा को सूचित कर दिया कि - "राजन् ! आज रात्रि को चोरों ने राजकोष को तोड़ा है और रत्नों के चार डिब्बे चुराए हैं।"
यह बात सुनते ही रात्रि की बात राजा को स्मरण हो आयी और उस सत्यवादी चोर पर दृढ़ विश्वास करते हुए सोचा-चोरी हुई है, यह बात निश्चित है, किन्तु राजकोष से मात्र दो डिब्बे ही चोरी गये हैं। दो डिब्बों की चोरी करने वाला चोर यह कोषाध्यक्ष ही है। वह चोर अवश्य था, किन्तु सत्यवादी था। पर आदतवश पैसे के भूखे इस चोर ने चोरी की है। पक्का चोर यह खजांची है।
राजा ने घोषणा करवाई कि जिस चोर ने रात्रि के समय राजभण्डार में चोरी की वह आज राजदरबार में उपस्थित हो । राजा उसके सभी अपराधों को माफ करेगा।
चोर को तो भय का नामोनिशान नहीं था, वह निर्भीक होकर राजदरबार में सहर्ष प्रकट हुआ। राजा व राजकुमार ने पूछा-क्या तुमने कल रात को राज खजाने में चोरी की है? राजा को उस सत्यवादी चोर पर अटूट विश्वास हुआ कि वास्तव में यह चोर नहीं, साहूकार है, चोरी जैसे निन्द्य कर्म को तो कारणवशात् अपनाया है।
राजा ने उस चोर को साहूकार व खजांची को चोर घोषित करते हुए चोर को कोषाध्यक्ष के पद पर आसीन किया और उस खजांची को तिरस्कृत कर पदच्युत किया गया। यह सत्य की महिमा का अचिन्त्य फल है। अतः महाभारत शान्ति पर्व में कहा है - 'नास्ति सत्यात्परो धर्मो, नानृतात् पातकं परम्।' इस विश्व में सत्य से बढ़कर धर्म नहीं और झूठ से बढ़कर पाप नहीं।