अभयकुमार के जीवन प्रंसंग

राजगृही के महाराज श्रेणिक और उनके परिवार की भगवान महावीर के प्रति भक्ति उल्लेखनीय रही है। उसमें राजमंत्री अभयकुमार का बड़ा योगदान रहा है।

अभयकुमार के जीवन प्रंसंग

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राजगृही के महाराज श्रेणिक और उनके परिवार की भगवान महावीर के प्रति भक्ति उल्लेखनीय रही है। उसमें राजमंत्री अभयकुमार का बड़ा योगदान रहा। भंभसार-श्रेणिक की नन्दा रानी से "अभय" का जन्म हुआ।' नन्दा "वेन्नातट" के "धनावह" सेठ की पुत्री थी।

अभयकुमार श्रेणिक-भंभसार का परम मान्य मंत्री भी था उसने कई बार राजनैतिक संकटों से श्रेणिक की रक्षा की। एक बार उज्जयिनी के राजा चंडप्रद्योत ने चौदह राजाओं के साथ राजगृह पर आक्रमण किया। अभय ने ही उस समय राज्य का रक्षण किया। उसने जहाँ शत्रु का शिविर लगना था, वहाँ पहले ही स्वर्ण मुद्राएँ गड़वा दीं। जब चण्डप्रद्योत ने आकर राजगृह को घेरा तो अभय ने उसे सूचना करवाई - "मैं आपका हितैषी होकर एक सूचना कर रहा हूँ कि आपके साथी राजा श्रेणिक से मिल गये हैं। अत: वे आपको पकड़ कर श्रेणिक को सम्भलाने वाले हैं। श्रेणिक ने उनको बहुत धनराशि दी है। विश्वास न हो तो आप अपने शिविर की भूमि खुदवा कर देख लें।"

चण्डप्रद्योत ने भूमि खुदवाई तो उस उस स्थान पर गड़ी हुई स्वर्ण मुद्राएँ मिलीं। भय खाकर वह ज्यों का त्यों ही उज्जयिनी लौट गया।'

राजगृही में एक बार एक द्रुमक लकड़हारा सुधर्मा स्वामी के पास दीक्षित हुआ। जब वह दीक्षा के लिए नगरी में गया तो लोग उसका उपहास करते हुए बोले - "ये आये हैं बडे त्यागी पुरुष, कितना बड़ा वैभव छोड़ा है इन्होंने?" लोगों के इस उपहास वचन से नवदीक्षित मुनि व्यथित हुए। उन्होंने सुधर्मा स्वामी से आकर कहा। द्रुमक मुनि की खेद-निवृत्ति के लिए सुधर्मा स्वामी ने भी अगले ही दिन वहाँ से विहार करने का सोच लिया।

अभयकुमार को जब इस बात का पता चला तो उसने आर्य सुधर्मा को ठहरने के लिए निवेदन किया तथा नगर में आकर एक-एक कोटि स्वर्ण मुद्राओं की तीन राशियाँ लगवाई और नगर के लोगों को आमंत्रित किया। उसने नगर में घोषणा करवाई कि जो जीवन भर के लिए स्त्री, अग्नि और पानी का परित्याग करे, वह इन तीन कोटि स्वर्ण मुद्राओं को ले सकता है।

स्त्री, अग्नि और पानी छोड़ने के भय से कोई स्वर्ण लेने को नहीं आया, तब अभयकुमार ने कहा"देखो वह द्रुमक मुनि कितने बड़े त्यागी हैं। इन्होंने जीवनभर के लिए स्त्री, अग्नि और पानी का परित्याग कर दिया है।" अभय की इस बुद्धिमत्ता से द्रुमक मुनि के प्रति लोगों की व्यंग-चर्चा समाप्त हो गई। अभयकुमार की धर्मसेवा के ऐसे अनेकों उदाहरण जैन साहित्य में भरे पड़े हैं।

भगवान महावीर जब राजगृह पधारे तो अभयकुमार भी वन्दन के लिए उद्यान में आया। देशना के अन्त में अभय ने भगवान से सविनय पूछा-'भगवन् ! आपके शासन में अन्तिम मोक्षगामी राजा कौन होगा?"

उत्तर में भगवान महावीर ने कहा - "वीतभय का राजा उदयन, जो मेरे पास दीक्षित मुनि है, वही अन्तिम मोक्षगामी राजा है।"

अभयकुमार ने सोचा - "मैं यदि राजा बनकर दीक्षा ग्रहण करूँगा तो मेरे लिए मोक्ष का रास्ता बन्द हो जाएगा। अत: क्यों न मैं कुमारावस्था में ही दीक्षा ग्रहण कर लूँ।"

अभयकुमार वैराग्य भावना से श्रेणिक के पास आया और अपनी दीक्षा की बात कही। श्रेणिक ने कहा - "वत्स! दीक्षा ग्रहण का दिन तो मेरा है, तुम्हें तो अभी राज्य-ग्रहण करना चाहिए। अभयकुमार द्वारा विशेष आग्रह किये जाने पर श्रेणिक ने कहा - जिस दिन मैं तुमको रुष्ट होकर कहूँ - जा मुझे आकर मुँह नहीं दिखाना, उसी दिन तुम प्रव्रजित हो जाना।"

कालान्तर में फिर भगवान महावीर राजगृह पधारे। उस समय भीषण शीतकाल था। एक दिन राजा श्रेणिक रानी चेलना के साथ घूमने गये। सायंकाल उपवन से लौटते हुए उन्होंने नदी के किनारे एक मुनि को ध्यानस्थ देखा। रात्रि के समय रानी जगी तो उसे मुनि की याद हो आई। सहसा उसके मुंह से निकला “आह ! वे क्या करते होंगे?" रानी के वचन सुनकर राजा के मन में उसके प्रति अविश्वास हो गया। प्रात:काल भगवद्-वन्दन को जाते हुए उन्होंने अभयकुमार को आदेश दिया - "चेलना का महल जला दो, यहाँ दुराचार बढ़ता है।"

अभयकुमार ने महल से रानियों को निकालकर उसमें आग लगवा दी।

उधर श्रेणिक ने भगवान के पास रानियों के आचार-विषयक जिज्ञासा रखी तो महावीर ने कहा "राजन् ! तेरी चेलना आदि सारी रानियाँ निष्पाप हैं, शीलवती हैं।" भगवान के मुख से रानियों के प्रति कहे गये वचन सुनकर राजा अपने आदेश पर पछताने लगा। वह इस आशंका से कहीं कोई हानि न हो जाए, सहसा महल की ओर लौट चला। मार्ग में ही अभयकुमार मिल गया। राजा ने पूछा - "महल का क्या किया?" अभय ने कहा-"आपके आदेशानुसार जला दिया।"

"अरे मेरे आदेश के बावजूद भी तुम्हें अपनी बुद्धि से काम लेना चाहिए था", खिन्न हदय से राजा बोला।

यह सुनकर अभय बोला-"राजाज्ञा-भंग का दण्ड प्राण-नाश होता है, मैं इसे अच्छी तरह जानता हूँ।" 

"फिर भी तुम्हें कुछ रुककर, समय टाल कर आदेश का पालन करना चाहिए था", व्यथित मन से राजा ने कहा।

इस पर अभय ने जवाब दिया-"इस तरह बिना सोचे-समझे आदेश ही नहीं देना चाहिए। मैंने तो अपने से बड़ों की आज्ञा का पालन को ही अपना धर्म समझा है और आज तक उसी के अनुकूल आचरण किया है।"

अभय के इस उत्तर प्रत्युत्तर एवं अपने द्वारा दिए गए दुष्टादेश से राजा अत्यन्त क्रुद्ध हो उठा। दूसरा होता तो राजा तत्क्षण उसके सिर को धड़ से अलग कर देता किन्तु पुत्र के ममत्व से वह ऐसा नहीं कर सका। फिर भी उसके मुख से सहसा निकल पड़ा - "जारे अभय ! यहाँ से चला जा। भूलकर भी कभी मुझे अपना मुँह मत दिखाना।"

अभय तो ऐसा चाहता ही था। अंधा जैसे आँख पाकर गद्गद् हो जाता है, अभय भी उसी तरह परम प्रसन्न हो उठा। वह पितृ वचन को शिरोधार्य कर तत्काल वहाँ से चल पड़ा और भगवान के चरणों में जाकर उसने प्रव्रज्या ग्रहण कर ली।

राजा श्रेणिक ने जब महल एवं उसके भीतर रहने वालों को सुरक्षित पाया तो उसको फिर एक बार अपने सहसा दिए गए आदेश पर दुःख हुआ। उसे यह समझने में किंचित् भी देर नहीं लगी कि आज के इस आदेश से मैंने अभय जैसे चतुर पुत्र एवं राज्य कार्य में योग्य व नीतिज्ञ मंत्री को खो दिया है। वह आशा के बल पर शीघ्रता से लौटकर पुनः महावीर के पास आया। वहाँ उसने देखा कि अभयकुमार तो दीक्षित हो गया है। अब पछताने के सिवा और क्या होता? अभयकुमार मुनि विशुद्ध मुनिधर्म का पालन कर विजय नामक अनुत्तर विमान में अहमिन्द्र बने।'

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