भगवान महावीर स्वामी का प्रथम एवं अंतिम उपसर्ग

तपस्या-काल में प्रभु ने अनेक प्रकार के कष्टों और उपसर्गों को सहन किया, किन्तु कानों से कील निकालने वाला उपसर्ग सबसे अधिक कष्टप्रद था। इन सभी उपसर्गों को समभाव से सहन कर भगवान ने महती कर्म निर्जरा की।

भगवान महावीर स्वामी का प्रथम एवं अंतिम उपसर्ग

post

प्रथम उपसर्ग 

जिस समय भगवान कुमारग्राम के बाहर ध्यानस्थ खड़े थे, उस समय एक ग्वाला अपने बैलों के साथ वहाँ आया। उसने महावीर के पास बैलों को चरने के लिए छोड़ दिया और गायें दुहने के लिए पास के गाँव में चला गया। बैल चरते-चरते दूर निकल गये। कुछ समय बाद जब ग्वाला वापस आया तो अपने बैलों को वहाँ न पाकर पास खड़े महावीर से पूछ।। ध्यानस्थ महावीर ने कोई उत्तर नहीं दिया तो वह स्वयं बैलों को ढूढने चला गया। वह रात भर बेलों को ढूढ़ता रहा। संयोगवश इधर कुछ देर बाद बैल अपने आप वापस आ गये और महावीर के पास बैठ गये। उद्विग्न ग्वाला प्रात:काल खाली हाथ वापस आया तो बैलों को महावीर के पास बैठे देखकर क्रुद्ध हुआ। महावीर को चोर समझकर उन्हें रस्सी से मारने दोडा। यह देखकर इन्द्र तत्क्षण उपस्थित हुआ और इस परिषह से रक्षा की।

इस घटना के बाद इन्द्र ने भगवान से प्रार्थना की कि वे उसे सेवा का अवसर दें। भगवान ने कहा- अर्हन्त केवलज्ञान और सिद्धि प्राप्त करने के लिए किसी की सहायता नहीं लेते, बल्कि अपने बल से ही उसे प्राप्त करते हैं। फिर भी इन्द्र ने अपने संतोष के लिए मारणान्तिक उपसर्ग टालने के लिए सिद्धार्थ नामक व्यंतर देव को प्रभु की सेवा में नियुक्त किया और भगवान को वन्दन कर चला गया।


अन्तिम उपसर्ग

साधना के तेरहवें वर्ष में भगवान महावीर प्रभु मेढ़ीयाग्राम होते हुए छम्माणि ग्राम गये और गांव के बाहर ध्यानस्थ हो गए। संध्या के समय एक ग्वाला वहाँ आया और अपने बैल प्रभु के पास छोड़ किसी काम से गाँव में चला गया। लौटने पर बैल नहीं दिखाई दिये तो उसने महाबीर से पूछा, पर वे तो मौन रहे। उनके चुप रहने से क्रोधित होकर ग्वाले ने महावीर के दोनों कानों में कांस नामक घास की शलाकाएँ डाल दी और पत्थर से ठोंक कर कान के बराबर कर दी। इससे होने वाली अतिवेदना को भगवान अपने पूर्वकर्म का फल समझकर चुपचाप सहते रहे। छम्माणि से विहारकर प्रभु "मध्यमपावा" पधारे और भिक्षा के लिए 'सिद्धार्थ' नामक एक वैश्य के यहाँ गये। उस समय सिद्धार्थ अपने वैद्य-मित्र 'खरक' से बातें कर रहा था। खरक ने भगवान की मुखाकृति देखते ही समझ लिया कि इनके शरीर में कोई शूल है। उसने सिद्धार्थ से कहा और उन लोगों ने भगवान से कुछ देर ठहरने की प्रार्थना की पर भगवान रुके नहीं। वे वहाँ से चलकर गाँव के बाहर आये और पुन: उद्यान में ध्यान में लीन हो गये। थोड़ी देर बाद सिद्धार्थ और खरक औषधियों के साथ उद्यान में पहुंचे। उन्होंने भगवान के शरीर की तेल से खूब मलिश की और फिर संडासी की सहायता से कानों से तीलियाँ खींचकर निकाली। खून से लथपथ तीलियों के निकलते ही भगवान के मुख से एक चीख निकली उससे सारा उद्यान गूंज उठा। उसके बाद वैद्य खरक ने संरोहण औषधि घाव पर लगाकर प्रभु की वन्दना की और दोनों मित्र लौट गये।

कहा जाता है कि तपस्या-काल में प्रभु ने अनेक प्रकार के कष्टों और उपसर्गों को सहन किया, किन्तु कानों से कील निकालने वाला उपसर्ग सबसे अधिक कष्टप्रद था। इन सभी उपसर्गों को समभाव से सहन कर भगवान ने महती कर्म निर्जरा की। आश्चर्य की बात है कि भगवान को पहला उपसर्ग एक ग्वाले ने दिया था और अंतिम उपसर्ग भी एक ग्वाले ने ही दिया था। छाद्मस्थ काल के साधिक साढ़े बारह वर्ष में भगवान महावीर ने केवल 349 दिन ही आहार ग्रहण किया। शेष सभी दिन निर्जल तपस्या में व्यतीत किये।


You might also like!