भगवान महावीर के पूर्वभव
भगवान महावीर के जीव ने नयसार के भव में सत्कर्म का बीज डालकर उसका क्रमश: सिंचन करते हुए तीर्थकर-पद की प्राप्ति की, जिसका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है-
किसी समय प्रतिष्ठानपुर का ग्रामचिन्तक नयसार जंगल में लकड़ियों के लिए गया हुआ था। दोपहर को वह खाने बैठा ही था कि उसे एक तपस्वी मुनि दिखाई दिए जो अपना रास्ता भूल उधर निकल आए थे। उसने भूख-प्यास से पीड़ित उन मुनि को भावपूर्वक निर्दोष आहार-पानी दिया और उन्हें सही मार्ग बताया। मुनि ने भी नयसार को धर्म-उपदेश दिया और आत्मोत्थान का मार्ग बतलाया। फलस्वरूप नयसार को सम्यक्त्व की प्राप्ति हुई और उसने संसार परिसीमित कर लिया।
दूसरे भव में वह सौधर्म कल्प में देव हुआ और तीसरे भव में वह राजा भरत के पुत्र मरीचि के रूप में उत्पन्न हुआ। चौथे भव में ब्रह्मलोक में देव, पाँचवें में कौशिक ब्राह्मण, छठे में पुष्यमित्र ब्राह्मण, सातवें में सौधर्म देव, आठवें में अग्निद्योत, नवे भव में द्वितीयकल्प का देव, दसर्वे में अग्निभूति ब्राह्मण, ग्यारहवें में सनत्कुमार देव, बारहवें भव में भारद्वाज, तेरहवें भव में महेन्द्रकल्प का देव, चौदहवें में स्थावर ब्राह्मण, पन्द्रहवें में ब्रह्मकल्प का देव, सोलहवें में युवराज विशाखभूति का पुत्र विश्वभूति, सत्रहवें भव में महाशुक्र देव, और अट्ठारहवें में त्रिपृष्ट वासुदेव के रूप में जन्म ग्रहण किया। त्रिपृष्ट के भव में निकाचित कर्मबन्ध के फलस्वरूप उन्नीसवें भव में सप्तम नरक में नेरइया रूप में उत्पन्न हुआ। बीसवें भव में सिंह, इक्कीसवें में चतुर्थ नरक का नेरइया, बाईसवें में प्रियमित्र (पोट्टिल) चक्रवर्ती, तेईसवें भव में महाशुक्रकल्प में देव हुआ तधा चौबीसवें नन्दन राजा के भव में तीर्थकर गोत्र का बंध किया। पच्चीसवें भव में प्राणत स्वर्ग के पुष्पोत्तर विमान में देवरूप में उत्पन्न हुए। समवायांग सूत्र के अनुसार प्राणत स्वर्ग से च्यवन कर नन्दन का जीव देवानन्दा की कोख में प्रविष्ट हआ। यह उनका छब्बीसवाँ भव तथा देवानन्दा के गर्भ से त्रिशला देवी की कोख में हरिणैगमेषी देव द्वारा साहरण से वर्द्धमान के रूप में जन्म लेना भगवान महावीर का सताईसवाँ भव माना गया है, अर्थात् क्रमश: दो गर्भो में आगमन को दो अलग-अलग जन्म माना गया है।