कामदेव श्रावक
महावीर भगवान के समय में द्वादश व्रत को विमल भाव से धारण करनेवाला, विवेकी और निर्गंथवचनानुरक्त कामदेव नाम का एक श्रावक उनका शिष्य था। एक समय इन्द्र ने सुधर्मासभा में कामदेव की धर्म-अचलता की प्रशंसा की। उस समय वहाँ एक तुच्छ बुद्धिमान देव बैठा हुआ था। "वह बोला-"यह तो समझमें आया, जब तक नारी न मिले तब तक ब्रह्मचारी तथा जब तक परिषह न पडे हों तब तक सभी सहनशील और धर्मदृढ ।' यह मेरी बात मैं उसे चलायमान करके सत्य कर दिखाऊँ।" धर्मदृढ कामदेव उस समय कायोत्सर्ग में लीन था। देवता ने विक्रिया से हाथी का रूप धारण किया; और फिर कामदेव को खूब रौंदा, तो भी वह अचल रहा; फिर मूसल जैसा अंग बनाकर काले वर्ण का सर्प होकर भयंकर फूंकार किये, तो भी कामदेव कायोत्सर्ग से लेशमात्र चलित नहीं हुआ। फिर अट्टहास्य करते हुए राक्षस की देह धारण करके अनेक प्रकार के परिषह किये, तो भी कामदेव कायोत्सर्ग से डिगा नहीं। सिंह आदि के अनेक भयंकर रूप किये, तो भी कामदेव ने कायोत्सर्ग में लेश हीनता नहीं आने दी। इस प्रकार देवता रात्रि के चारों प्रहर उपद्रव करता रहा, परंतु वह अपनी धारणा में सफल नहीं हुआ। फिर उसने उपयोग से देखा तो कामदेव को मेरु के शिखर की भाँति अडोल पाया। कामदेव की अद्भुत निश्चलता जानकर उसे विनयभाव से प्रणाम करके अपने दोषों की क्षमा माँगकर वह देवता स्वस्थान को चला गया।
'कामदेव श्रावक की धर्मदृढता हमें क्या बोध देती है, यह बिना कहे भी समझ में आ गया होगा। इसमेंसे यह तत्त्वविचार लेना है कि निग्रंथ-प्रवचन में प्रवेश करके दृढ रहना। कायोत्सर्ग इत्यादि जो ध्यान करना है, उसे यथासंभव एकाग्र चित्त से और दृढता से निर्दोष करना।' चल विचल भाव से कायोत्सर्ग बहुत दोषयुक्त होता है । 'पाईके लिए धर्मकी सौगन्ध खानेवाले धर्म में दृढता कहाँसे रखें? और रखें तो कैसी रखें?' यह विचारते हुए खेद हो
श्रीमद राजचंद्र प्रणीत
दृष्टांत कथा
हिंदी अनुवादक - श्री हंसराज जी जैन
किताब प्रकाशक -श्रीमद राजचंद्र जन्म भवन ववाणिया