कर्म का फल

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कर्म का फल

किसी नगर मे एक कलाकार रहता था। काष्ठ-शिल्प में यह प्रवीण था। अपने सधे हुए हाथो से वह जिस काष्ठ को भी छू देता वह देखते-देखते ही एक सुन्दर कलाकृति मे परिणत हो जाती । देखने वाले बस मुग्ध होकर देखते ही रह जाते।

किन्तु प्राय कलाकारो के साथ एक दुर्भाग्य भी छाया की तरह साथ साथ चलता है कि उनकी कला का मूल्य जगत नहीं जानता और वे बेचारे कलाकार दरिद्रता मे ही अपने बहुमूल्य जीवन की इतिश्री कर संसार से विदा हो जाते है । शायद यह उक्ति सत्य ही है कि लक्ष्मी और सरस्वती का मेल बैठता ही नहीं। उदरपूर्ति हेतु उसे धन की आवश्यकता पड़ती ही थी. और वह धन उसे मिलता नहीं था।

निदान, दुर्भाग्य का मारा, भूख की ज्वाला से हेरान, वह विवश कलाकार चोरी जैसे जघन्य कर्म मे प्रवृत्त हो गया। चोरी के गिरोह में मिल जाने पर अपनी कुशलता से उसने शीघ्र ही उस बल का नेतृत्व अपने हाथ में ले लिया। दिन के समय वह चोरी किये जाने लायक स्थान की खोज-बीन करता और रात्रि को अपने गिरोह के साथ उस स्थान पर धावा बोल देता। मजबूत से मजबूत और सुरक्षित से सुरक्षित स्थान में भी पलक झपकते-झपकते सेंध लगा देना उसके बाएँ हाथ का खेल था।

एक बार वह अपने साथियो सहित चोरी करने के लिए एक ऐसे मकान में पहुँचा जिसकी दीवारे चूने ओर पत्थर की न होकर काष्ठ की थी। यह कथा पुराने जमाने की है, उस समय लकडी के मकान बहुतायत मे पाये जाते थे। अब ज्यो ही वह उस काष्ठ की दीवार मे सेंध लगाने लगा कि उसका कलाकार-मानस जाग उठा । अनजाने ही, सहज भाव से वह वहाँ सेध लगाने मे भी कला का उत्कृष्ट नमूना तैयार करने लगा। काष्ठ को वह इस ढंग से काटने लगा कि एक सुन्दर फंगूरे का रूप बन जाय । उसके साथी उसकी इस प्रकार की तन्मयता देखकर बौखलाए-

“भाई ! यहाँ चोरी करने आए हो या अपनी कारीगरी दिखाने ? इस प्रकार तो विलम्ब हो जायगा और हम सब पकडे जाकर मारे जायेंगे । जल्दी से सेंध लगाकर अपना काम खत्म करो।"

चोर बन जाने पर भी जिसके हृदय से कला का प्रेम विनष्ट नहीं हुआ था ऐसा वह कलाकार उत्तर मे बोला “अरे भाई। चोरी तो करनी ही है, किन्तु ऐसा स्थान और ऐसी वस्तु हर समय उपलब्ध नही होती। अतः तनिक अपनी कला का जादू भी दिखा दु, ताकि प्रातःकाल जब लोग उसे देखें तो उन्हे यह पता चले कि चोरी करने के लिए केवल चोर ही नहीं कोई असाधारण कलाकार भी आया था।"

उसकी इन सरल मूर्खता पर साथियों को हँसी आ गई। तीक्ष्ण धार वाली आरी चलती रही। उसकी आवाज से गृहपति की नीद खुल गई। मावधान होकर वह एक और छिप गया। सेंध लग जाने पर ज्याही कलाकार ने तीखे कंगूरो वाली सेंध से घर में घुसने के लिए पैर भीतर डाला कि गृह स्वामी ने झपट कर उसके पाँव मजबूती से दबोच लिए और सोचने लगा कि यदि यह भीतर आ गया तो कोन जाने किसी तीखे शस्त्र से मुझ पर आक्रमण ही कर बैठे।

उधर बाहर खडे उसके साथियो को जब उस स्थिति का भान हुआ कि उसके पैर भीतर से पकड़ लिए गए हे तो वे सोचने लगे कि यदि यह भीतर घसीट लिया गया और पकड लिया गया तो सारा भेद खुल जायगा, सब लोग नाहक मारे जायंगे। अतः चिन्तित होकर वे लोग उसके दोनो हाथ पकडकर उसे बाहर खीचने लगे।

इस प्रकार भीतर और बाहर दोनो ओर से खोचा जाने पर नोकदार, तीक्ष्ण कंगूरे वाली उसकी कारीगरी स्वयं उसी के शरीर को चोरने लगी। वह चिल्लाया-"अरे छोड दो मुझे. मैं मर जाऊँगा।"

किन्तु कृत-कर्म के फल भोगने की उसकी घडी आ चुकी थो। साथी उसे इसलिए नही छोडते थे कि यदि यह पकडा गया तो उन सभी का भेद खुल जायगा, तथा गृहस्वामी तो भला उसे छोडता ही क्यो ?

अन्ततः उस खीचातानी में उसका सारा शरीर लहू-लुहान हो गया और वेदना से तडपते-तडपते उसने प्राण त्याग दिए। दुर्भाग्य का मारा एक कलाकार चोरी जैसे निकृष्ट कर्म मे प्रवृत्त हुआ और उसे अपने कर्म का फल भोगना ही पड़ा।

-उत्तराध्ययन

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