कर्म और जीव का सम्बन्ध
कर्म - पुद्गल उसे कहते हैं, जिसमें रूप, रस, गन्ध और स्पर्श हों, पृथ्वी, पानी, आग और हवा, पुद्गल से बने है। जो पुद्गल, कर्म बनते हैं, वे एक प्रकार की अत्यन्त सूक्ष्म रज अथवा धूलि है जिसको इन्द्रियाँ यन्त्र की मदद से भी नहीं जान सकती। सर्वज्ञ परमात्मा अथवा परम अवधिज्ञान वाले योगी ही उस रज को देख सकते है; जीव के द्वारा जब वह रज ग्रहण की जाती है तब उसे कर्म कहते है।
शरीर में तेल लगाकर कोई धूलि में लोटे तो धूलि उसके शरीर में चिपक जाती है, उसी प्रकार मिथ्यात्व, कषाय, योग आदि से जीव के प्रदेशों में जब परिस्पंद होता है-अर्थात् हलचल होती है, तब जिस आकाश में आत्मा के प्रदेश है, वहीं के अनन्त-अनन्त कर्मयोग्य पुद्गल परमाणु, जीव के एक-एक प्रदेश के साथ बन्ध जाते हैं। इस प्रकार जीव और कर्म का आपस में बन्ध होता है। दूध और पानी का तथा आग का और लोहे के गोले का जैसे सम्बन्ध होता है उसी प्रकार जीव और पुद्गल का सम्बन्ध होता है।
कर्म और जीव का अनादि काल से सम्बन्ध चला आ रहा है। पुराने कर्म अपना फल देकर आत्मप्रदेशों से अलग हो जाते है और नये कर्म प्रति समय बन्धते जाते हैं। कर्म और जीव का सादि सम्बन्ध मानने से यह दोष आता है कि 'मुक्त जीवों को भी कर्म बन्ध होना चाहिये'।
कर्म और जीव का अनादि-अनन्त तथा अनादि सान्त दो प्रकार का सम्बन्ध है। जो जीव मोक्ष पा चुके हैं या पायेंगे उनका कर्म के साथ अनादि-सान्त सम्बन्ध है और जिनका कभी मोक्ष न होगा उनका कर्म के साथ अनादि-अनन्त सम्बन्ध है। जिन जीवों में मोक्ष पाने की योग्यता है उन्हें भव्य और जिन में योग्यता नहीं है उन्हें अभव्य कहते हैं।
जीव का कर्म के साथ अनादि काल से सम्बन्ध होने पर भी जब जन्ममरण-रूप संसार से छूटने का समय आता है तब जीव को विवेक उत्पन्न होता है - अर्थात् आत्मा और जड़ की भिन्नता मालूम हो जाती है। तप-ज्ञान-रूप अग्नि के बल से वह सम्पूर्ण कर्ममल को जला कर शुद्ध सुवर्ण के समान निर्मल हो जाता है। यही शुद्ध आत्मा ईश्वर है, परमात्मा है अथवा ब्रह्म है।
सान्त (अंतसहित)
अनंत (अन्तरहित)