आयुष्य कर्म
जिस प्रकार बेड़ी स्वाधीनता में बाधक है, उसी प्रकार जो कर्म परमाणु आत्मा को विभिन्न शरीरों में नियत अवधि तक कैद रखते हैं, उन्हें आयुष्य कर्म कहते हैं। यह कर्म निश्चय करता है कि आत्मा को किस शरीर में कितनी समयावधि तक रहना है। आयुष्य कर्म चार प्रकार का है - (१) नरक आयु, (२) तिर्यंच आयु (वानस्पतिक एवं पशु जीवन), (३) मनुष्य आयु और (४) देव आयु।
आयुष्य कर्म के बन्ध के कारण - सभी प्रकार के आयुष्य कर्म के बन्ध का कारण शील और व्रत से रहित होना माना गया है। फिर भी किस प्रकार के आचरण से किस प्रकार का जीवन मिलता है, उसका निर्देश भी जैन आगमों में उपलब्ध है। स्थानांग सूत्र में प्रत्येक प्रकार के आयुष्य कर्म के बन्ध के चार-चार कारण माने गये हैं।
(अ) नारकीय जीवन की प्राप्ति के चार कारण
(१) महारम्भ (भयानक हिंसक कर्म), (२) महापरिग्रह (अत्यधिक संचय वृत्ति), (३) मनुष्य, पशु आदि का वध करना, (४) माँसाहार और शराब आदि नशीले पदार्थ का सेवन।
(ब) पाशविक जीवन की प्राप्ति के चार कारण
(१) कपट करना, (२) रहस्यपूर्ण कपट करना, (३) असत्य भाषण, (४) कम-ज्यादा तोल-माप करना। कर्मग्रन्थ में प्रतिष्ठा कम होने के भय से पाप का प्रकट न करना भी तिर्यंच आयु के बन्ध का कारण माना गया है। तत्त्वार्थ सूत्र में माया (कपट) को ही पशुयोनि का कारण बताया है।
(स) मानव जीवन की प्राप्ति के चार कारण
(१) सरलता, (२) विनयशीलता, (३) करुणा और (४) अहंकार एवं मात्सर्य से रहित होना। तत्त्वार्थ सूत्र में - (१) अल्प आरम्भ, (२) अल्प परिग्रह, (३) स्वभाव की सरलता और (४) स्वभाव की मृदुता को मनुष्य आयु के बन्ध का कारण कहा गया है।
(द) दैवीय जीवन की प्राप्ति के चार कारण
(१) सराग (सकाम) संयम का पालन, (२) संयम का आंशिक पालन, (३) सकाम तपस्या (बाल-तप), (४) स्वाभाविक रूप में कर्मों के निर्जरित होने से। तत्त्वार्थ सूत्र में भी यही कारण माने गये हैं। कर्मग्रन्थ के अनुसार अविरत सम्यकदृष्टि मनुष्य या तिथंच, देशविरत श्रावक, सरागी-साधु, बाल-तपस्वी और इच्छा नहीं होते हुए भी परिस्थितिवश भूख-प्यास आदि को सहन करते हुए अकाम-निर्जरा करने वाले व्यक्ति देवायु का बन्ध करते हैं।
आकस्मिक मरण - प्राणी अपने जीवनकाल में प्रत्येक क्षण आयु-कर्म को भोग रहा है और प्रत्येक क्षण में आयु-कर्म के परमाणु भोग के पश्चात् पृथक् होते रहते हैं। जिस समय वर्तमान आयु-कर्म के पूर्वबद्ध समस्त परमाणु आत्मा से पृथक् हो जाते हैं उस समय प्राणी को वर्तमान शरीर छोड़ना पड़ता है। वर्तमान शरीर छोड़ने के पूर्व ही नवीन शरीर के आयु-कर्म का बन्ध हो जाता है। लेकिन यदि आयुष्य का भोग इस प्रकार नियत है तो आकस्मिक मरण की व्याख्या क्या ? इसके प्रत्युत्तर में जैन-विचारकों ने आयु-कर्म का भोग दो प्रकार का माना-(१) क्रमिक, (२) आकस्मिक। क्रमिक भोग में स्वाभाविक रूप से आयु का भोग धीरे-धीरे होता रहता है, जबकि आकस्मिक भोग में किसी कारण के उपस्थित हो जाने पर आयु एक साथ ही भोग ली जाती है। इसे ही आकस्मिक मरण या अकाल मृत्यु कहते हैं। स्थानांग सूत्र में इसके सात कारण बताये गये हैं-(१) हर्ष-शोक का अतिरेक, (२) विष अथवा शस्त्र का प्रयोग, (३) आहार की अत्यधिकता अथवा सर्वथा अभाव, (४) व्याधिजनित तीव्र वेदना, (५) आघात, (६) सर्पदंशादि और (७) श्वासनिरोध।
पुस्तक द्रव्यानुयोग से साभार लेखक मुनि श्री कन्हैयालालजी "कमल"