नाम-कर्म के बन्ध के कारण

जिस प्रकार चित्रकार विभिन्न रंगों से अनेक प्रकार के चित्र बनाता है, उसी प्रकार नाम-कर्म विभिन्न कर्म परमाणुओं से जगत् के प्राणियों के शरीर की रचना करता है।

नाम-कर्म के बन्ध के कारण

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नाम-कर्म

जिस प्रकार चित्रकार विभिन्न रंगों से अनेक प्रकार के चित्र बनाता है, उसी प्रकार नाम-कर्म विभिन्न कर्म परमाणुओं से जगत् के प्राणियों के शरीर की रचना करता है। मनोविज्ञान की भाषा में नाम-कर्म को व्यक्तित्व का निर्धारक तत्त्व कह सकते हैं। जैन-दर्शन में व्यक्तित्व के निर्धारक तत्वो को नाम-कर्म की प्रकृति के रूप में जाना जाता है, जिनकी संख्या १०३ मानी गई है उपर्युक्त सारे वर्गीकरण का संक्षिप्त रूप है (१) शुभ नाम-कर्म (अच्छा व्यक्तित्व) और (२) अशुभ नाम-कर्म (बुरा व्यक्तित्व)। प्राणी जगत् में, जो आश्चर्यजनक वैचित्र्य दिखाई देता है, उसका आधार नाम-कर्म है।

शुभ नाम-कर्म के बन्ध के कारण
जैनागमों में अच्छे व्यक्तित्व की उपलब्धि के चार कारण माने गये हैं - (१) शरीर की सरलता, (२) वाणी की सरलता, (३) मन या विचारों की सरलता, (४) अहंकार एवं मात्सर्य से रहित होना या सामंजस्यपूर्ण जीवन।

शुभ नाम-कर्म का विपाक
उपर्युक्त चार प्रकार के शुभाचरण से प्राप्त शुभ व्यक्तित्व का विपाक १४ प्रकार का माना गया है - (१) अधिकारपूर्ण प्रभावक वाणी (इष्ट-शब्द), (२) सुन्दर सुगठित शरीर (इष्ट-रूप), (३) शरीर से निःसृत होने वाले मलों में भी सुगंधि (इष्ट-गंध), (४) जैवीय-रसों की समुचितता (इष्ट-रस), (५) त्वचा का सुकोमल होना (इष्ट-स्पर्श), (६) अचपल योग्य गति (इष्ट-गति), (७) अंगों का समुचित स्थान पर होना (इष्ट-स्थिति), (८) लावण्य, (९) यश कीर्ति का प्रसार (इष्ट-यश कीर्ति), (१०) योग्य शारीरिक शक्ति (इष्ट-उत्थान, कर्म, बलवीर्य, पुरुषार्थ और पराक्रम), (११) लोगों को रुचिकर लगे ऐसा स्वर, (१२) कान्त स्वर,(१३) प्रिय स्वर और (१४) मनोज्ञ स्वर।

अशुभ नाम-कर्म के कारण
निम्न चार प्रकार के अशुभाचरण से व्यक्ति (प्राणी) को अशुभ व्यक्तित्व की उपलब्धि होती है - (१) शरीर की वक्रता, (२) वचन की वक्रता, (३) मन की वक्रता और (४) अहंकार एवं मात्सर्य वृत्ति या असामंजस्यपूर्ण जीवन।

अशुभ नाम-कर्म का विपाक
(१) अप्रभावक वाणी (अनिष्ट शब्द), (२) असुन्दर शरीर (अनिष्ट स्पर्श), (३) शारीरिक मलों का दुर्गन्धयुक्त होना (अनिष्ट गंध), (४) जैवीय रसों की असमुचितता (अनिष्ट रस), (५) अप्रिय स्पर्श, (६) अनिष्ट गति, (७) अंगों का समुचित स्थान पर न होना (अनिष्ट स्थिति), (८) सौन्दर्य का अभाव, (९) अपयश, (१०) पुरुषार्थ करने की शक्ति का अभाव, (११) हीन स्वर, (१२) दीन स्वर, (१३) अप्रिय स्वर और (१४) अकान्त स्वर।

पुस्तक द्रव्यानुयोग से साभार लेखक मुनि श्री कन्हैयालालजी "कमल"



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