वेदनीय कर्म के बन्ध के कारण

जिसके कारण सांसारिक सुख-दुःख की संवेदना होती है, उसे वेदनीय कर्म कहते हैं। इसके दो भेद हैं-(१) सातावेदनीय और (२) असातावेदनीय। सुख रूप संवेदना का कारण सातावेदनीय और दुःख रूप संवेदना का कारण असातावेदनीय कर्म कहलाता है।

वेदनीय कर्म के बन्ध के कारण

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वेदनीय कर्म के बन्ध के कारण

जिसके कारण सांसारिक सुख-दुःख की संवेदना होती है, उसे वेदनीय कर्म कहते हैं। इसके दो भेद हैं-(१) सातावेदनीय और (२) असातावेदनीय। सुख रूप संवेदना का कारण सातावेदनीय और दुःख रूप संवेदना का कारण असातावेदनीय कर्म कहलाता है।

सातावेदनीय कर्म के कारण - दस प्रकार का शुभाचरण करने वाला व्यक्ति सुखद-संवेदना रूप सातावेदनीय कर्म का बन्ध करता है (१) पृथ्वी, पानी आदि के जीवों पर अनुकम्पा करना। (२) वनस्पति, वृक्ष, लतादि पर अनुकम्पा करना। (३) द्वीन्द्रिय आदि प्राणियों पर दया करना। (४) पंचेन्द्रिय पशुओं एवं मनुष्यों पर अनुकम्पा करना। (५) किसी को भी किसी प्रकार से दुःख न देना। (६) किसी भी प्राणी को चिन्ता एवं भय उत्पन्न हो ऐसा कार्य न करना। (७) किसी भी प्राणी को शोकाकुल नहीं बनाना। (८) किसी भी प्राणी को रुदन नहीं कराना। (९) किसी भी प्राणी को नहीं मारना और (१०) किसी भी प्राणी को प्रताड़ित नहीं करना। कर्मग्रन्थों में सातावेदनीय कर्म के बन्धन का कारण गुरुभक्ति, क्षमा, करुणा, व्रतपालन, योग-साधना, कषायविजय, दान और दृढ़श्रद्धा माना गया है। तत्त्वार्थसूत्रकार का भी यही दृष्टिकोण है।

सातावेदनीय कर्म का विपाक - उपर्युक्त शुभाचरण के फलस्वरूप प्राणी निम्न प्रकार की सुखद संवेदना प्राप्त करता है - (१) मनोहर, कर्णप्रिय. सुखद स्वर श्रवण करने को मिलते हैं। (२) सुस्वाद भोजन-पानादि उपलब्ध होते हैं। (३) वांछित सुखों की प्राप्ति होती है। (४) शुभ वचन, प्रशंसादि सुनने का अवसर प्राप्त होता है। (५) शारीरिक सुख मिलता है।

असातावेदनीय कर्म के कारण - जिन अशुभ आचरणों के कारण प्राणी को दुःखद संवेदना प्राप्त होती है, वे १२ प्रकार के हैं - (१) किसी भी प्राणी को दुःख देना, (२) चिन्तित बनाना, (३) शोकाकुल बनाना, (४) रुलाना, (५) मारना और (६) प्रताड़ित करना, इन छह क्रियाओं की मन्दता और तीव्रता के आधार पर इनके बारह प्रकार हो जाते हैं। तत्त्वार्थ सूत्र के अनुसार - (१) दुःख, (२) शोक, (३) ताप, (४) आक्रन्दन, (५) वध और (६) परिवेदन, ये छह असातावेदनीय कर्म के बंध के कारण हैं, जो 'स्व' और 'पर' की अपेक्षा से १२ प्रकार के हो जाते हैं। स्व एवं पर की अपेक्षा पर आधारित तत्त्वार्थ सूत्र का यह दृष्टिकोण अधिक संगत है। कर्मग्रन्थ में सातावेदनीय के बन्ध के कारणों के विपरीत गुरु का अविनय, अक्षमा, क्रूरता, अविरति, योगाभ्यास नहीं करना, कषाययुक्त होना, तथा दान एवं श्रद्धा का अभाव असातावेदनीय कर्म के कारण माने गये हैं। इन क्रियाओं के विपाक के रूप में आठ प्रकार की दुःखद संवेदनाएँ प्राप्त होती हैं - (१) कर्ण-कटु, कर्कश स्वर सुनने को प्राप्त होते हैं, (२) अमनोज्ञ (अरुचिकर) एवं सौन्दर्यविहीन रूप देखने को प्राप्त होता है, (३) अमनोज्ञ गन्धों की उपलब्धि होती है, (४) स्वादविहीन भोजनादि मिलता है, (५) अमनोज्ञ, कठोर एवं दुःखद संवेदना उत्पन्न करने वाले स्पर्श की प्राप्ति होती है, (६) अमनोज्ञ मानसिक अनुभूतियों का होना, (७) निन्दा अपमानजनक वचन सुनने को मिलते हैं और (८) शरीर में विविध रोगों की उत्पत्ति से शरीर को दुःखद संवेदनाएँ प्राप्त होती हैं।

पुस्तक द्रव्यानुयोग से साभार लेखक मुनि श्री कन्हैयालालजी "कमल"

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