सामायिक क्यों?
जो साधक पूर्ण संयम धारण कर तीन करण तीन योग से सामायिक नहीं कर पाता ऐसे गृहस्थ को आत्महितार्थ दो करण तीन योग से आगार सामायिक अवश्य करनी चाहिये। क्योंकि वह भी विशिष्ट फल की साधना है, जैसे कि नियुक्ति में कहा है
सामाइयम्मि उकए, समणो इव सावओ हवइ,
एएण कारणेणं, बहुसो सामाइयं कुज्जा।
अर्थात् सामायिक करने पर श्रावक श्रमण-साधु की तरह होता है । वह अल्पकाल के लिए पापों का त्याग करके भी श्रमण जीवन के लिए लालायित रहता है। इसलिये गृहस्थ को समय-समय पर सामायिक साधना करनी चाहिये।
जिस साधना से समभाव की प्राप्ति हो वह सामायिक है। जिस प्रकार मोबाइल फोन को फुल चार्ज करने में करीब एक घंटा लगता है. वैसे ही आत्मा में समता को चार्ज करने में 48 मिनिट आवश्यक बतलाए हैं। इस साधना से मन इतना पुष्ट हो जाता है कि चौबीसों घंटे आत्मा, जिंदगी के हर मोड़ पर प्रफुल्लित रह सकती है।
हर उतार-चढ़ाव के बीच सामायिक बेलेंस बना देती है। जैसे-इम्पोर्टेड कारों में दो पहियों को जोड़ने वाले एक्सल के साथ ही ऐसी स्प्रिंग लगी रहती है, जो सड़क के खड्डों से लगने वाले झटकों से कार में बैठने वाले लोगों को बचा लेती है। इसी प्रकार सामायिक भी साधक को दु:ख के झटकों से बचा लेती है। सामायिक एक ऐसी सेंट है, जो चौबीस घंटे व्यक्ति को तर रखती है, बल्कि सेंट लगाए व्यक्ति के पास अगर दूसरा व्यक्ति भी आता है तो वह उसको भी सुवासित कर देती है। यही हाल सामायिक साधक का भी है। उसके जीवन में इतना परिवर्तन आ जाता है कि उसके सम्पर्क में आने वाले व्यक्ति के जीवन में भी बदलाव आने लगता है। जिस प्रकार व्यक्ति स्नान करके अपने आपको तरोताजा महसूस करता है, वैसे ही सामायिक साधना भीतरी स्नान है, जो व्यक्ति को अंदर से रिलेक्स करती है।
सामायिक करने का एक लाभ यह भी है कि गृहस्थ संसार के विविध प्रपंचों में विषय-कषाय और निद्रा-विकथा आदि में निरन्तर पापसंचय करता रहता है। अत: सामायिक के द्वारा दो घडी भर उनसे बचकर आत्मशान्ति का अनुभव कर सकता है। सामायिक-साधना से आत्मा मध्यस्थ होती है। कहा भी है
जीवोपमायबहुलो, बहुसो उ विय बहु विहेसु अत्थेसू।
एएण कारणेणं, बहुसो सामाइयं कुज्जा ।।
जो लोग सोचते हैं कि मन शान्त हो और राग-द्वेष मिटें तभी सामायिक करनी चाहिये, उनको सूत्रकार के वचनों पर गहराई से विचार करना चाहिये। आचार्य बार-बार सामायिक करने का संकेत इसलिये करते हैं कि मनुष्य प्रमाद में निज गुण को भूले नहीं। सामायिक की साधना परमार्थ की ओर बढ़ाने वाली होनी चाहिये, इसलिये आचार्यों ने कहा है
जस्स सामाणिओ अप्पा, संजमे नियमे तवे ।
तस्स सामाइयं होइ, इइ केवलिभासियं ।।
अर्थात जिसकी आत्मा मूलगुण रूप संयम, उत्तर गुण रूप नियम और तपस्या में समाहित है, वैसे अप्रमादी साधक को पूर्ण सामायिक प्राप्त होती है। गृहस्थ दान, शील, सेवा, पूजा, उपकार आदि करते हुए भी यदि सामायिक द्वारा आत्म-संयम प्राप्त नहीं करता है तो सावद्ध से नहीं बच पाता, अतः कहा गया है कि
सावज्ज-जोग-परिवज्जणट्ठा, सामाइअं केवलियं पसत्थं ।
गिहत्थधम्मा परमंति नच्चा, कुज्जा बुहो आयहियं परत्थं ।।
अर्थात् सावद्ध योग से बचने के लिए सामायिक पूर्ण और प्रशस्त कार्य है। इससे आत्मा पवित्र होती है। गृहस्थ धर्म से इसकी साधना ऊँची है, श्रेष्ठ है, ऐसा समझकर बुद्धिमान साधक को आत्महित और परलोक सुधार के लिए सामायिक की साधना करना आवश्यक है।
जीवन में अनेक प्रकार की टक्करें लगती रहती हैं, उनसे पूरी तरह बचना सम्भव नहीं है, किन्तु टक्करें लगने पर भी उनसे आहत न होने का उपाय सामायिक है। आप जानते हैं कि मनुष्य जब रंज की हालत में होता है तो अपने आपको संसार में सबसे अधिक दुःखी मानने लगता है और आदरणीय का आदर करना एवं वन्दनीय को वन्दन करना भूल जाता है। इस प्रकार विषमता की स्थिति में पड़कर वह दोलायमान होता रहता है और अपने कर्तव्य का पालन ठीक तरह नहीं कर पाता है। इससे बचने के लिए और सन्तुलित मानसिक स्थिति बनाये रखने के लिए सामायिक साधना ही उपयोगी होती है।
शम की स्थिति प्राप्त करने के लिए सामायिक साधना करनी चाहिये। काम, क्रोध, मोह, माया आदि के कुसंस्कार इतने गहरे होते हैं कि उनकी जड़ें उखाड़ने का दीर्घकाल तक प्रयास करने पर भी वे कभी-कभी उभर आते हैं। अध्यात्म-साधना में निरत एकाग्र साधक भी कभी-कभी उनके प्रभाव में आ जाता है। कभी कोई निमित्त पाकर तृष्णा या काम की आग भड़क उठती है। यह आग अनादिकाल से जीव को सन्तप्त किये हए है। इसे शान्त करने का उपाय भी सामायिक है।
पुस्तक सामायिक दर्शन (सम्यकज्ञान प्रचारक मंडल) से साभार