सामायिक की काल मर्यादा
सामायिक स्वीकार करने का पाठ 'करेमि भंते' है। उसमें केवल 'जाव नियम' पाठ है, अर्थात् जब तक नियम है; तब तक सामायिक है । यहाँ काल के संबंध में कोई निश्चित धारणा नहीं बताई गई है। परंतु सर्वसाधारण जनता को नियमबद्ध करने के लिए प्राचीन आचार्यों ने दो घड़ी (48 मिनिट) की मर्यादा में बाँध दिया है। यदि मर्यादा न बाँधी जाती, तो बहुत अव्यवस्था हो जाती। कोई दो घड़ी सामायिक करता, तो कोई घड़ी भर ही।
मनोवैज्ञानिक दृष्टि से भी काल-मर्यादा आवश्यक है। धार्मिक क्या, किसी भी प्रकार की ड्यूटी, यदि निश्चित समय के साथ न बंधी हो तो मनुष्य में शैथिल्य आ जाता है, कर्तव्य के प्रति उपेक्षा का भाव होने लगता है।
मूल आगम-साहित्य में प्रत्येक धार्मिक क्रिया के लिए काल मर्यादा का विधान है । मुनिचर्या के लिए यावज्जीवन, पोषधव्रत के लिए दिन-रात और व्रत आदि के लिए चतुर्थ भक्त आदि का उल्लेख है। सामायिक का न्यूनतम कालमान एक मुहूर्त रखा गया है।
मुहूर्त-भर (48 मिनिट) का काल ही क्यों निश्चित किया गया है? इसके उत्तर के लिए हमें आगमों की शरण में जाना पड़ेगा। यह आगमिक नियम है कि साधारण साधक का एक विचार, एक संकल्प, एक भाव, एक ध्यान अधिक-से-अधिक अन्तर्मुहूर्त भर भी चालू रह सकता है। अन्तर्मुहूर्त के बाद अवश्य ही विचारों में परिवर्तन आ जाता है इस संबंध में भद्रबाहु स्वामी ने कहा - "अंतोमुहुत्तकालं चित्तस्सेगग्गया हवइ झाणं" चित्त की एकाग्रता रूप ध्यान अन्तर्महर्त तक चालू रह सकता है, अतः सामायिक का काल एक मुहर्त निर्धारित किया गया है। मुहूर्त में से एक समय एवं एक क्षण भी कम हो, तो अन्तर्मुहूर्त माना जाता है।
पुस्तक सामायिक दर्शन (सम्यकज्ञान प्रचारक मंडल) से साभार