मौर्य सम्राट अशोक का सुपौत्र सम्प्रति मगध साम्राज्य का अधिपति कैसे बना? उसने कौन-सा ऐसा महान् कार्य किया कि वह सम्प्रति बन गया, जिसने जिनशासन की खूब प्रभावना की।
कलिकाल सर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्र ने अपने ग्रन्थ 'परिशिष्ट-पर्व' में सम्प्रति का पूर्व बताया है, जिसमें उसने एक दिन के संयम से यह महान अवस्था प्राप्त की थी।
राजा सम्प्रति के पूछने पर आचार्य सुहस्ती ने उसका पूर्वभव बताते हुए कहा - 'राजन्! तुम्हारे इस जन्म से पूर्व की बात है, एकदा विचरण करते हुए मैं अपने श्रमण शिष्यों सहित कौशाम्बी नामक नगर में पहुंचा। उस समय वहाँ दुष्काल का प्रकोप चल रहा था। अतः सामान्य लोगों को अन्न का दर्शन तक दुर्लभ हो गया था।
श्रमणों के प्रति अगाध श्रद्धा एवं भक्ति के कारण श्रद्धालु गृहस्थ उन्हें भिक्षाटन के समय पर्याप्त मात्रा में अशनपानादि प्रदान करते थे। एक समय कौशाम्बी में भिक्षाटन करते हुए मेरे शिष्य एक गृहस्थ के घर में पहुंचे। उनके पीछेपीछे एक दीन, हीन, दरिद्र और भूखे भिक्षुक ने उस गृहस्थ के घर में प्रवेश किया। उस गृहस्थ ने साधुओं को तो पर्याप्त रूपेण भोजनपानादि का दान दिया किन्तु उस भिक्षुक को उसने कुछ भी नहीं दिया। वह भूखा भिक्षुक साधुओं के पीछे हो लिया और उनसे भोजन की याचना करने लगा।
साधुओं ने उससे कहा कि वे लोग तो अपने साधु आचार के अनुसार किसी गृहस्थ को कुछ भी नहीं दे सकते। भूख से पीड़ित वह भिक्षुक मेरे शिष्यों का अनुसरण करता हुआ मेरे स्थान पर पहुंच गया। उसने मुझसे भी भोजन की याचना की। मुझे ज्ञानोपयोग से ऐसा विदित हुआ कि अगले जन्म में यह भिक्षक जिनशासन का प्रचार-प्रसार करने वाला होगा। मैंने उससे कहा कि यदि तुम श्रमणधर्म में दीक्षित हो जाओ तो तुम्हें हम तुम्हारी इच्छानुसार पर्याप्त भोजन दे सकते हैं। भूखा क्या नहीं करता? 'बुभुक्षितः किं न करोति कार्यम्।' उक्ति के अनुसार उसने यह सोचकर कि उसकी इस दीन-हीन दुःखद अवस्था की तुलना में तो श्रमण जीवन के कष्ट सहना कठिन नहीं है, तत्काल उसने मेरे पास श्रमण दीक्षा अंगीकार कर ली। दीक्षित हो जाने पर वह हमारे द्वारा भिक्षा में प्राप्त भोजन का अधिकारी बन गया। अत: उसे उसकी इच्छानुसार भोजन खिलाया गया।
वस्तुतः वह कई दिनों का भूखा था अतः उसने जी भरकर स्वादिष्ट भोजन खाया। रात्रि में उस नवदीक्षित भिक्षु की उदरपीड़ा के कारण मृत्यु हो गई और वह अशोक के अन्ध राजकुमार कुणाल के यहाँ पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ। 'राजन्! तुम वही भिक्षुक हो जो अपने इस सम्प्रति के भव से पहले के भव में मेरे पास दीक्षित हुए थे। यह सब तुम्हारे एक दिवस के श्रमण जीवन का फल है कि तुम बड़े राजा बने हो।'