विनय से तत्व की सिद्धि है।
श्रेणिक राजा का दृष्टांत
राजगृही नगरी के राज्यासन पर जब श्रेणिक राजा बिराजमान था तब उस नगरी में एक चांडाल रहता था। एक बार उस चांडाल की स्त्रीको गर्भ रहा तब उसे आम खाने की इच्छा उत्पन्न हुई। उसने आम ला देने के लिये चांडाल से कहा। चांडाल ने कहा, "यह आम का मौसम नहीं है, इसलिये मैं निरुपाय हूँ; नहीं तो मैं आम चाहे जितने ऊँचे स्थान पर हों वहाँ से अपनी विद्या के बल से लाकर तेरी इच्छा पूर्ण करूँ।" चांडाली ने कहा, "राजा की महारानी के बाग में एक असमय में आम देने वाला आम्रवृक्ष है, उस पर अभी आम लचक रहे होंगे, इसलिये वहाँ जाकर आम ले आओ।"
अपनी स्त्री की इच्छा पूरी करने के लिये चांडाल उस बाग में गया। गुप्त रूप से आम्रवृक्ष के पास जाकर मन्त्र पढकर उसे झुकाया और आम तोड लिये। दूसरे मंत्र से उसे जैसा का तैसा कर दिया। बाद में वह घर आया और अपनी स्त्री की इच्छापूर्ति के लिये निरंतर वह चांडाल विद्या के बल से वहाँ से आम लाने लगा।
एक दिन फिरते-फिरते माली की दृष्टि आम्रवृक्ष की ओर गयी। आमों की चोरी हुई देख कर उसने जाकर श्रेणिक राजा के सामने नम्रतापूर्वक कहा। श्रेणिक की आज्ञासे अभयकुमार नाम के बुद्धिशाली मंत्री ने युक्ति से उस चांडाल को खोज निकाला।
चांडाल को अपने सामने बुलाकर पूछा, "इतने सारे मनुष्य बाग में रहते हैं, फिर भी तू किस तरह चढकर आम ले गया कि यह बात किसी के भाँपने में भी न आयी? सो कह ।"
चांडाल ने कहा, "आप मेरा अपराध क्षमा करे । मैं सच कह देता हूँ कि मेरे पास एक विद्या है, उसके प्रभाव से मैं उन आमों को ले सका।" अभयकुमार ने कहा, "मुझसे तो क्षमा नहीं दी जा सकती; परंतु महाराजा श्रेणिक को तू यह विद्या दे तो उन्हें ऐसी विद्या लेने की अभिलाषा होने से तेरे उपकार के बदले में मैं अपराध क्षमा करा सकता हूँ।" चांडाल ने वैसा करना स्वीकार किया। फिर अभयकुमार ने चांडाल को जहाँ श्रेणिक राजा सिंहासन पर बैठा था वहाँ लाकर सामने खडा रखा; और सारी बात राजा को कह सुनायी।
इस बातको राजा ने स्वीकार किया। फिर चांडाल सामने खडे रहकर थरथराते पैरों से श्रेणिकको उस विद्या का बोध देने लगा; परंतु वह बोध लगा नहीं। तुरन्त खडे होकर अभयकुमार बोले, “महाराज ! आपको यदि यह विद्या अवश्य सीखनी हो तो सामने आकर खडे रहें, और इसे सिंहासन दें।" राजाने विद्या लेनेके लिये वैसा किया तो तत्काल विद्या सिद्ध हो गयी।
यह बात केवल बोध लेनेके लिये है। एक चांडाल की भी विनय किये बिना श्रेणिक जैसे राजा को विद्या सिद्ध न हुई, तो इसमें से यह तत्व ग्रहण करना है कि, सद्विद्या को सिद्ध करने के लिये विनय करनी चाहिये। आत्मविद्या पानेके लिये यदि हम निग्रंथ गुरुकी विनय करें तो कैसा मंगलदायक हो! विनय यह उत्तम वशीकरण है। भगवान ने उत्तराध्ययन में विनय को धर्मका मूल कहकर वर्णित किया है। गुरुकी, मुनिकी, विद्वान की, माता-पिता की, और अपने से बडों की विनय करनी यह अपनी उत्तमता का कारण है।
श्रीमद राजचंद्र प्रणीत
दृष्टांत कथा
हिंदी अनुवादक - श्री हंसराज जी जैन
किताब प्रकाशक -श्रीमद राजचंद्र जन्म भवन ववाणिया