जिज्ञासा - श्रुतज्ञान किसे कहते हैं ?
समाधान - मति ज्ञान द्वारा जाने हुए विषय में और अधिक स्पष्ट बोध होना, हेय-उपादेय का विवेक होना, कार्य-कारण, वाच्य-वाचक सम्बन्ध स्थापित करने का सामर्थ्य प्रकट होना, श्रुतज्ञान कहलाता है। यह श्रुतज्ञान भी इन्द्रियाँ और मन की सहायता से जीव को प्राप्त होता है। सुनकर-जानने की प्रधानता होने से ऐसा भी कहा जाता है कि जो सुनकर जाना जाये, उसे श्रुतज्ञान कहते हैं। सुनकर जानने में सुनने की प्रमुखता होने के साथ ही गौण रूप में देखकर, सूंघकर, चखकर, स्पर्शकर जानना भी इसमें समाहित समझना चाहिए।
जिज्ञासा - श्रुतज्ञान के कितने व कौन-कौन से भेद बतलाये गये हैं?
समाधान - श्रुतज्ञान के चौदह भेद बतलाये हैं, जो इस प्रकार हैं-1.अक्षर श्रुत, 2. अनक्षर श्रुत, 3. संजी श्रुत, 4. असंज्ञी श्रुत, 5. सम्यक् श्रुत, 6. मिथ्या श्रुत, 7. सादि श्रुत, 8. अनादि श्रुत, 9. सपर्यवलित श्रुत, 10. अपर्यवसित श्रुत, 11. गमिक श्रुत, 12. अगमिक श्रुत, 13. अङ्गप्रविष्ट श्रुत और 14.अङ्गबाह्य श्रुत।
जिज्ञासा - अक्षर श्रुतज्ञान किसे कहते हैं?
समाधान - विभिन्न प्रकार के अक्षरों के उच्चारण से जो ज्ञान होता है, वह अक्षर श्रुतज्ञान कहलाता है। अक्षर श्रुतज्ञान तीन प्रकार का है-1. संज्ञा-अक्षर (संज्ञाक्षर), 2. व्यञ्जन-अक्षर (व्यञ्जनाक्षर), 3. लब्धि-अक्षर (लब्ध्य क्षर)।
जिज्ञासा-संज्ञाक्षर श्रुतज्ञान किसे कहते हैं?
समाधान-विभिन्न प्रकार के आकार से, मोड़ से युक्त जो अक्षर कागज, ताड़पत्र आदि पर लिखे जाते हैं, वे संज्ञाक्षर कहलाते हैं। प्राचीन काल में प्रचलित एवं शास्त्रों में वर्णित हंसलिपि, भूतलिपि आदि अठारह प्रकार की लिपियाँ व वर्तमान में प्रचलित हिन्दी, गुजराती, उर्दू, बंगाली, कन्नड, तमिल आदि अक्षर लिपिबद्ध होने से और आकृति-मोड़ स्वरूप होने से इन्हें संज्ञाक्षर जानना चाहिए। इन लिपियों का ज्ञान संज्ञाक्षर श्रुतज्ञान कहलाता है।
जिज्ञासा- व्यञ्जनाक्षर श्रुतज्ञान किसे कहते हैं ?
समाधान-'अ' से लेकर 'ज्ञ' तक के बावन अक्षरों को व्यञ्जनाक्षर कहते हैं। हिन्दी, गुजराती, अंग्रेजी या दूसरी कोई भी भाषा बोली जाये, उस भाषा के उच्चारण में 'अ' से लेकर 'ज्ञ' तक के बावन अक्षर सहायक अथवा निमित्त भूत बनते ही हैं। इसलिए इन अक्षरों का उच्चारण व्यञ्जनाक्षर कहलाता है।
जिज्ञासा - लब्ध्यक्षर श्रुतज्ञान किसे कहते हैं ?
समाधान - उच्चारण किये जाने वाले एवं लिखे गये अक्षरों का अर्थ-भावार्थ समझना लब्ध्यक्षर श्रुतज्ञान कहलाता है। वक्ता के शब्दों में तथा शास्त्रादि पुस्तकों के शब्दों में रहे हुए भाव को, आशय को समझना लम्यक्षर श्रुतज्ञान है। आत्मा में जो ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से समझने की सामर्थ्य प्रकट होती है, वह भी लब्ध्यक्षर रूप ही जाननी चाहिए।
अक्षर श्रुतज्ञान के उपर्युक्त तीन भेदों में से प्रथम दो भेद जड़ रूप हैं तथा अन्तिम भेद अर्थ का बोध कराने वाला होने से भाव रूप है।
जिज्ञासा - अक्षर श्रुतज्ञान के प्रथम दो भेद जड़ रूप होते हुए भी उन्हें श्रुतज्ञान क्यों कहा गया है?
समाधान - कार्य में कारण का आरोप करके प्रथम दो भेद भी श्रुतज्ञान रूप माने गये हैं। लेखन या शब्दों के द्वारा व्यक्ति के भाव प्रकट होने से वे भावरूप ज्ञान में कारण रूप बनते हैं। इसलिए प्रथम के दो भेद भाव श्रुत के अर्थात् लब्धि अक्षर के साधन हैं। अत: ज्ञानरूप कार्य में कारण रूप प्रथम दो भेदों को अक्षर श्रुतज्ञान मानने में कोई बाधा नहीं है।
जिज्ञासा - अनक्षर श्रुतज्ञान किसे कहते हैं ?
समाधान - अक्षरों के उच्चारण के बिना खखार, अँगुलियों का इशारा, छींक, ताली बजाना, चुटकी बजाना, सिर हिलाना, आँखों के इशारे आदि से जो ज्ञान होता है, वह अनक्षर श्रुतज्ञान कहलाता है। हाथ, चेहरे आदि की चेष्टाओं के द्वारा यह जानना कि वह मुझे बुला रहा है अथवा मना कर रहा है आदि जानना अनक्षर श्रुतज्ञान कहलाता है।
जिज्ञासा - संज्ञी श्रुतज्ञान किसे कहते हैं ?
समाधान - जिन जीवों के पास मनोलब्धि है, जिनमें चिन्तन-मनन करने की शक्ति है, जो हेय-उपादेय का निर्णय कर सकते हैं, भूत-भविष्य का सम्यक् विचार कर सकते हैं, वे संज्ञी जीव कहलाते हैं। ऐसे संज्ञी पञ्चेन्द्रिय जीवों के द्वारा मन और इन्द्रियों की सहायता से जो ज्ञान प्राप्त किया जाता है, उसे संज्ञी श्रुतज्ञान कहते हैं।
जिज्ञासा - संज्ञा कितने प्रकार की बतलायी गई है?
समाधान - संज्ञा मुख्य रूप से तीन प्रकार की बतलायी है-1, हेतुवादोपदेशिकी, 2. दीर्घकालिकी, 3. दृष्टिवादोपदेशिकी।
1. जिस संज्ञा में मात्र वर्तमान कालीन इष्टअनिष्ट का विचार हो सके, भूत-भविष्य की कोई विशेष विचारणा नहीं हो सके, उसे हेतुबादोपदेशिकी संज्ञा कहते हैं। यह संज्ञा एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रियादि असंज्ञी जीवों में मुख्य रूप से होती है।
2. जिस संज्ञा में वर्तमान, भूत एवं भविष्य तीनों कालों का विचार हो सके, स्व-पर के हित का निर्णय हो सके, उस संज्ञा को दीर्घकालिकी संज्ञा कहते हैं। यह संज्ञा मन वाले संज्ञी जीवों में होती है।
3. तीर्थकर भगवन्तों की आज्ञा के अनुसार जिसमें हेय-ज्ञेय-उपादेय का बिचार हो सके, आत्म चिन्तन हो सके, उसे दृष्टिवादोपदेशिकी संज्ञा कहते हैं। यह संज्ञा सम्यग्दृष्टि जीवों में होती है।
जिज्ञासा - असंज्ञी श्रुतज्ञान किसे कहते हैं ?
समाधान - बिना मन वाले जीवों को इन्द्रियों की सहायता से जो श्रुतज्ञान प्राप्त होता है, उसे असंज्ञी श्रुतज्ञान कहते हैं। हेतुवादोपदेशिकी संज्ञा वाले जीवों का श्रुतज्ञान असंजी श्रुतज्ञान कहलाता है। दूसरी अपेक्षा से कहें तो एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और संज्ञी पञ्चेन्द्रिय जीवों का श्रुतज्ञान असंज्ञी श्रुतज्ञान कहलाता है।
जिज्ञासा - सम्यक् श्रुतज्ञान किसे कहते हैं ?
समाधान - सम्यग्दृष्टि जीवों का श्रुतज्ञान सम्यक् श्रुतज्ञान कहलाता है।
सम्यक श्रुतज़ान दो प्रकार का है 1.द्रव्य सम्यक् श्रुतज्ञान और 2. भाव सम्यक् श्रुतज्ञान।
1. द्रव्य सम्यक् श्रुतज्ञान अर्थात् सम्यक् दृष्टि जीवों के द्वारा रचित ग्रन्थ, शास्त्र, सूत्र आदि द्रव्य सम्यक् श्रुतज्ञान कहलाते हैं। जैसे-आचाराङ्गसूत्र, सूत्रकृताङ्गसूत्र, स्थानाजसूत्र आदि-आदि।
2. भाव सम्यक् श्रुतज्ञान अर्थात् सम्यक् दृष्टि जीवों के द्वारा ग्रहण किया गया ज्ञान भाव सम्यक् श्रुतज्ञान कहलाता है।
पत्रिका जिनवाणी से साभार (लेखक श्री धर्मचन्द्र जैन)