जैन धर्म के अनुसार काल चक्र
जैन कालचक्र दो भाग में विभाजित है : उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी
जिस प्रकार काल हिंदुओं में मन्वंतर कल्प आदि में विभक्त है उसी प्रकार जैन में काल दो प्रकार का है- उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी। अवसर्पिणी काल में समयावधि,हर वस्तु का मान,आयु,बल इत्यादि घटता है जबकि उत्सर्पिणी में समयावधि,हर वस्तु का मान और आयु, बल इत्यादि बढ़ता है इन दोनों का कालमान दस क्रोड़ाक्रोड़ी सागरोपम का होता है अर्थात एक समयचक्र बीस क्रोड़ाक्रोड़ी सागरोपम का होता है।
अवसर्पिणी एवं उत्सर्पिणी काल के भेद - सुषमा-सुषमा काल, सुषमा काल, सुषमा-दुःषमा काल, दुःषमा-सुषमा काल, दुःषमा काल एवं दुःषमा-दुःषमा काल। ये छः भेद अवसर्पिणी काल के हैं। इससे विपरीत उत्सर्पिणी काल के भी छः भेद हैं। दुःषमा- दुःषमा काल, दुःषमा काल, दुःषमा-सुषमा काल, सुषमा-दुःषमा काल, सुषमा काल एवं सुषमा-सुषमा काल।
अवसर्पिणी के छः काल का समय इस तरह का होता है -
1) पहला काल चार कोड़ा-कोड़ी सागर का होता है। (सुषमा-सुषमा काल)
2) दूसरा काल तीन कोड़ा-कोड़ी सागर का होता है। (सुषमा काल)
3) तीसरा काल दो कोड़ा-कोड़ी सागर का होता है। (सुषमा-दुःषमा काल)
4) चौथा काल 42 हजार वर्ष कम एक कोड़ा-कोड़ी सागर का होता है। (दुःषमा-सुषमा काल)
5) अभी वर्तमान में चल रहा पंचम काल 21 हजार वर्ष का होता है। (दुःषमा काल)
6) छठा काल 21 हजार वर्ष का होता है। (दुःषमा-दुःषमा काल)
इसके बाद उत्सर्पिणी के छः काल का समय इस तरह का होता है –
1) पहला काल 21 हजार वर्ष का होता है। (दुःषमा-दुःषमा काल)
2) दूसरा काल 21 हजार वर्ष का होता है। (दुःषमा काल)
3) तीसरा काल 42 हजार वर्ष कम एक कोड़ा-कोड़ी सागर का होता है। (दुःषमा-सुषमा काल)
4) चौथा काल दो कोड़ा-कोड़ी सागर का होता है। (सुषमा-दुःषमा काल)
5) पंचम काल तीन कोड़ा-कोड़ी सागर का होता है। (सुषमा काल)
6) छठा काल चार कोड़ा-कोड़ी सागर का होता है। (सुषमा-सुषमा काल)
इस तरह अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी के कुल काल का योग 20 कोड़ा-कोड़ी सागर का होता है।