जल के उपसर्ग में अर्णिकापुत्र आचार्य के समाधिमरण की कथा
पुष्पभद्र नगर में पुष्पकेतु नाम का राजा और उसकी पुष्पवती नाम की रानी रहती थी। रानी ने एक युगल को जन्म दिया। पुत्र का नाम पुष्पचुल और पुत्री का नाम पुष्पचुला रखा गया। उन दोनों का परस्पर अति स्नेह देखकर राजा ने उनका वियोग न हो- इस कारण उनका विवाह कर दिया। पुष्पवती को इससे निर्वेद, अर्थात् वैराग्य उत्पन्न हुआ और उसने दीक्षा ले ली। अन्त में वह साधना करके देवलोक में उत्पन्न हुई। वहाँ से देवी ने पुष्पचुला को प्रतिबोध देने के लिए स्वप्न में भयंकर दुःखों से दुःखित नारकी जीवों को बताया। उस वीभत्स स्वप्न को देखकर उसने राजा को नरक का वृत्तान्त कहा। राजा ने विश्वास के लिए बहुश्रुत अर्णिकापुत्र आचार्य से उस सम्बन्ध में पूछा। उन्होंने भी नरक के यथार्थस्वरूप का वर्णन किया। पुष्पचुला रानी ने कहा- "हे भगवन! क्या आपने भी स्वप्न में ऐसा वृत्तान्त देखा था।" आचार्यश्री ने कहा- “हे भद्रे! जगत् में ऐसा कुछ नहीं है, जिसे जिनेश्वर परमात्मा द्वारा कथित आगम से नहीं जाना जा सके।"
पुनः, इसी तरह पुष्पचुला ने स्वप्न में स्वर्गलोक देखा। आचार्य ने उसका भी यथार्थ स्वरूप बताया। इसे सुनकर हर्षित हुई रानी भावपूर्वक गुरु के चरणों में नमस्कार करके कहने लगी- "हे भगवन्त! आपने मुझे नरक के दुःखों और स्वर्ग के सुखों का सम्यक् बोध कराया है।" पुष्पचुला रानी ने वैराग्य प्राप्त कर राजा से दीक्षा की अनुमति माँगी। इसे सुनकर राजा को अत्यन्त दुःख हुआ। फिर 'अन्यत्र विहार न करके इसी क्षेत्र में रहना'- ऐसी प्रतिज्ञा के साथ अति कठिनाई से राजा ने उसे दीक्षा की आज्ञा प्रदान की। पुष्पचुला साध्वी दीक्षा लेकर तप के द्वारा कर्म-निर्जरा करने लगी।
एक समय नगर में भारी दुष्काल पड़ा। आचार्य ने सभी शिष्यों को दूर विहार कराकर स्वयं की अस्वस्थता के कारण वहीं स्थिरवास किया। पुष्पचुला साध्वी उन्हें राजमहल से आहार पानी लाकर देती थी। इस तरह विशुद्ध परिणामवाली साध्वी ने अप्रतिपाति केवलज्ञान को प्राप्त किया, परन्तु केवलीरूप में प्रसिद्ध होने से पूर्व केवली अपना पूर्व-आचार का उल्लंघन नहीं करते हैं तथा विनयपूर्वक आचार का पालन करते हैं। एक समय श्लेष्म से पीड़ित आचार्य को तिक्त आहार खाने की इच्छा हुई तो साध्वी ने उनकी इच्छा को उसी तरह पूर्ण किया। इससे विस्मय मन वाले आचार्य ने कहा- "हे आर्य! तूने मेरे मानसिक गुप्त चिन्तन को किस तरह से जाना?" साध्वी ने कहा- "ज्ञान से।" आचार्य ने पछा- "कौन से ज्ञान से?" "अप्रतिपाती ज्ञान के द्वारा।" यह सुनकर- 'थिक्कार हो! मुझे धिक्कार हो! मैंने केवली की आशातना की है' - इस तरह आचार्य शोक करने लगे। तब साध्वी ने कहा- "हे मुनिश्वर ! शोक मत करो, क्योंकि 'यह केवली है' - ऐसा जाहिर हुए बिना केवली भी पूर्व व्यवहार को नहीं छोड़ते हैं।" फिर आचार्य ने पूछा- “मैं दीर्घकाल से उत्तम चारित्र की आराधना करता हूँ। मैं निर्वाण-पद को प्राप्त करूँगा या नहीं?" साध्वीजी ने कहा- "हे मुनिश:! निर्वाण के लिए संशय क्यों करते हो, क्योंकि गंगा नदी के पार उतरकर तुम भी शीघ्र ही कर्मक्षय करोगे।"
यह सुनकर आचार्य गंगा पार करने हेतु नाव पर बैठे। आचार्य के नाव पर बैठते ही वह नाव डूबने लगी। इससे, सर्व का नाश होगा- ऐसा जानकर निर्यामक ने आचार्य को उठाकर नदी में फेंक दिया। यह जानकर आचार्य प्रशम-रस में सम्पूर्ण निमग्न हो सभी आश्रव द्वारों को रोकनेवाले शुक्लध्यान में स्थिर हुए, जिससे उन्होंने कर्मों का क्षय करके केवलज्ञान को प्राप्त किया। जल में ही सर्वयोगों का सम्पूर्ण निरोध करके मोक्षपद प्राप्त किया।
इस तरह कठिन उपसर्गों में भी समता धारणकर आराधनापूर्वक साधक अन्तकृत केवली बन सकता है, अतः मुनिश्रेष्ठ तप के द्वारा समाधि में निमग्न होकर सहजता से अनादिकाल के कर्मों को क्षयकर शाश्वत सुखों को प्राप्त कर सकता है।