एक बार गौतम वाणिज्यग्राम में भिक्षार्थ भ्रमण कर जब 'दूतिपलाश' चैत्य की ओर लौट रहे थे तो उन्होंने मार्ग में आनंद श्रावक के अनशन ग्रहण की बात सुनी। उन्होंने सोचा आनंद प्रभु का उपासक शिष्य है, उसने अनशन ग्रहण कर रखा है तो उसे चलकर देखना चाहिए और वे 'कोल्लाग सन्निवेश' पधारे।
गौतम को अपने पास आया देख आनंद बहुत प्रसन्न हुआ। उसने उन्हें प्रणाम किया और कुछ देर बाद बोला भगवन्! क्या घर पर रहकर गृहस्थ भी अवधिज्ञान का अधिकारी हो सकता है ? गौतम ने कहा-हाँ। तब आनंद ने कहा-मुझे भी अवधिज्ञान हुआ है और मैं उत्तर में चुल्ल हिमवंत पर्वत तक, लवण समुद्र में तीनों ओर 500-500 योजन तक, ऊपर सौद्धर्म देवलोक तक तथा नीचे लोलच्चुअ नरकावास तक के रूपी पदार्थों को जानता व देखता हूँ। गौतम ने कहा-गृहस्थ को अवधिज्ञान तो होता है, पर इतनी दूर तक का नहीं। अत: तुम्हें इस असत्य कथन की आलोचना करनी चाहिए। इस पर आनंद ने कहा -मैं सत्य कह रहा हूँ। संभवत: आलोचना आपको करनी चाहिए।
गौतम के मन में शंका उत्पन्न हो गई और वे तुरंत भगवान के पास पहुँचे। भगवान ने कहा-नहीं, आनंद ने जो कहा वह ठीक है, अत: तुम्हें अपने असत्य-कथन की आलोचना करना चाहिए। भगवान की बात सुनकर गौतम पारणा किए बिना आनंद के पास पहुँचे और अपनी भूल स्वीकार कर उनसे क्षमा मांगी।
जैन इतिहास के प्रसंग भाग ९ से साभार