कर्म-प्रकृति
(उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन 33 में आठ कर्मों की उत्तर प्रकृतियाँ, आठ कर्मों की जघन्य-उत्कृष्ट स्थितियां, भगवती सूत्र शतक 8 उद्देशक 9 में कर्मों के प्रकृति-बंध के 85 कारण और पन्नवणा सूत्र पद 23 उद्देशक 1 में कर्मभोग के 93 कारण बताये हैं।)
कर्म-कषाय और योग के निमित्त से आत्मा के साथ लगे हुए दूध पानी की तरह एकमेक हुए कार्मण-पुद्गलों को 'कर्म' कहते हैं।
कर्मों के नाम - 1. ज्ञानावरणीय, 2. दर्शनावरणीय, 3. वेदनीय, 4. मोहनीय, 5. आयु, 6. नाम, 7. गोत्र और 8. अन्तराय कर्म।
लक्षण:
1. वस्तु के विशेष धर्म को जानना 'ज्ञान' कहलाता है और जिसके द्वारा यह ज्ञान गुण आच्छादित होता है, उसे 'ज्ञानावरणीय' कर्म कहते हैं, जैसे- सूर्य के आगे बादल आ जाने से उसका प्रकाश ढक जाता है। इस कर्म के क्षय से अनन्त ज्ञान गुण प्रकट होता है।
2. वस्तु के सामान्य धर्म को जानना दर्शन कहलाता है और जिसके द्वारा यह दर्शन गुण आच्छादित होता है, उसे दर्शनावरणीय कर्म कहते हैं। जैसे द्वारपाल की रुकावट के कारण राजा के दर्शन नहीं हो पाते। इस कर्म के क्षय से अनन्त दर्शन गुण प्रकट होता है।
3. जिससे जीव साता व असाता का अनुभव करता है, उसे वेदनीय कर्म कहते हैं। जैसे शहद लगी हुई तलवार को चाटने से जीव को पहले सुख व बाद में जीभ कटने पर दुःख का अनुभव होता है। यह आत्मा के निराबाध गुण को प्रकट नहीं होने देता है।
4. जिससे आत्मा मोहित (सत् और असत् के ज्ञान से हीन ) हो जाये, उसे मोहनीय कर्म कहते हैं। जैसे-शराब पीने से मनुष्य अपना भान भूल जाता है। यह कर्म आत्मा के क्षायिक समकित तथा अनन्त वीतरागता नामक गुण की घात करता है।
5. जिसके उदय से जीव चारों गतियों में अमुक काल के लिए रुका रहे, उसे आयु कर्म कहते हैं। जैसे जेल में कैदी न चाहते हुए भी रुक जाता है। यह कर्म आत्मा के अटल अवगाहना अथवा अमरत्व गुण को प्रकट नहीं होने देता है।
6. जिसके प्रभाव से जीव गति आदि विविध पर्यायों का अनुभव करें या जिसके सद्भाव से आत्मा का निज गुण अमूर्तत्व (अरूपीपना) प्रकट नहीं होवे, उसे नाम कर्म कहते हैं। जैसे चित्रकार अनेक प्रकार के चित्र बनाता है, उसी प्रकार नाम कर्म के प्रभाव से जीव अनेक तरह के रूप धारण करता है।
7. जिसके प्रभाव से जीव ऊँच-नीच कुलों में उत्पन्न होता है या उच्चता-नीचता के संस्कार प्राप्त होते हैं, जो जीव के अगुरूलघु गुण को प्रकट नहीं होने देता है, उसे गोत्रकर्म कहते हैं। जैसे कुम्भकार छोटे-बड़े बर्तन बनाता है, वैसे ही आत्मा कभी उच्च कुल में व कभी नीच कुल में जन्म लेती है।
8. जिससे दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य (शक्ति) में बाधा उत्पन्न होवे, उसे अन्तराय कर्म कहते हैं। जैसे- राजा की आज्ञा होने पर भी भण्डारी धन-प्राप्ति में बाधक हो जाता है। यह कर्म आत्मा के अनन्त आत्म-सामर्थ्य नामक गुण की घात करता है।