पच्चीस बोल-पहले बोले गति चार

गति - गमन करना अथवा चलना। संसारी जीवों का एक भव को छोड़कर दूसरे भव में जाना 'गति' कहलाती है। गति मुख्य रूप से चार हैं - नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देवगति।

पच्चीस बोल-पहले बोले गति चार

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पच्चीस बोल

पहले बोले गति चार

संसार में मूल दो तत्त्व हैं-जड़ और चेतन। चराचर सम्पूर्ण जगत इन्हीं दो मूलभूत तत्त्वों का विस्तार है। संसारी जीव अनन्त काल से कर्मानुसार एक पर्याय से दूसरी पर्याय में गमन करता है।
जीव-अजीव तत्वों की अनेक अपेक्षाओं से पच्चीस बोल के थोकड़े में विवेचना की गई है। सबसे पहले संसारी जीवों की गतियों के आधार पर विवेचना की गयी है।

1) पहले बोले गति चार -
1. नरकगति,
2. तिर्यञ्च गति,
3. मनुष्य गति,
4. देवगति।
आधार-1. स्थानांग सूत्र का चौथा ठाणा।

गति - गमन करना अथवा चलना। संसारी जीवों का एक भव को छोड़कर दूसरे भव में जाना 'गति' कहलाती है।
गति मुख्य रूप से चार हैं - नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देवगति।

1. नरक गति
(1) जहाँ पर जीव अपने द्वारा संचित अशुभ कर्मों का असाता रूप भयंकर फल अहिक भोगता हो उसे 'नरकगति' कहते हैं।
(2) जहाँ पर जीवों को तीन प्रकार की वेदना अधिक भोगनी पड़ती है उसे भी 'नरक गति' कहते हैं। तीन प्रकार की वेदना इस प्रकार हैं
(क) क्षेत्र वेदना- यह स्थान सम्बन्धी वेदना है। नारकी के जीवों को 1. अनन्त भूखा, 2. अनन्त प्यास, 3. अनन्त शीत, 4. अनन्त उष्ण, 5. अनन्त ज्वर, 6. अनन्त खुजली, 7. अनन्त रोग, 8. अनन्त अनाश्रय, 9. अनन्त शोक और 10, अनन्त भय, ये दस प्रकार की वेदना भोगनी पड़ती हैं। (ख) देवकृत वेदना- तीसरी नारकी तक के जीवों को परमाधामी देवों के द्वारा अनन्त दुःख देने से होने वाली वेदना देवकृत वेदना है। (ग) परस्परकृत वेदना-नारकी के जीव परस्पर एक-दूसरे से लड़-झगड़कर दुःखी होते रहते हैं।

2. तिर्यञ्च गति
(1) प्रायः तिरछे लोक में रहने वाले जीवों की गति को तिर्यञ्च गति' कहते हैं। इनको नरक जैसा अधिक दुःख और देव जैसा अधिक सुख दोनों ही नहीं होते। (2) जिन जीवों का शरीर प्रायः तिरछा-टेढ़ा-मेढ़ा होता है, उन जीवों की गति को भी तिर्यञ्च गति' कहते हैं।
जिस गति में एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक पाँचों जाति के जीव पाये जाते हों उसे भी तिर्यञ्च गति' कहते हैं।

3. मनुष्य गति
जिन जीवों में हेय, ज्ञेय, उपादेय के बारे में चिन्तन-मनन करने की शक्ति हो, जिस गति में आत्मा पर लगे सभी कर्मों को तप-संयम के द्वारा क्षय किया जा सकता हो उसे मनुष्य गति' कहते हैं। मनन करने से मनुष्य होता है।

4. देव गति
जहाँ पर जीव अपने किये हुए कर्मों का सातारूप फल अधिक भोगते हैं तथा अनेक प्रकार की दिव्य भौतिक ऋद्धियों को प्राप्त करते हैं उसे 'देव गति' कहते हैं। देवता चार प्रकार के होते हैं-(1) भवनपति, (2) वाणव्यन्तर, (3) ज्योतिषी और (4) वैमानिक।


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