आचार्य रक्षित
अनुयोगों के पृथक्कर्ता महान् आचार्य रक्षित अपने अनेक शिष्यों के साथ दशपुर ( मंदसौर) नगर के बाहर अपने दीक्षा-स्थल इक्षुगृह में ठहरे हुए थे। चातुर्मासायधि में अपनी आयु का अंतिम समय समीप समझ कर अपना उत्तराधिकारी नियुक्त करने के संबंध में चिन्तन किया। आर्य रक्षित अपने अनेक सुयोग्य शिष्यों में से केवल दुर्बलिका पुष्यमित्र को ही अपने उत्तराधिकारी आचार्य पद के लिए योग्य समझते थे, पर उनके शिष्य समूह में से कतिपय मुनि और संघ के कुछ प्रमुख व्यक्ति फल्गुरक्षित को उत्तराधिकारी बनाये जाने के पक्ष में थे तो कतिपय मुनि तथा संघ के कुछ प्रमुख व्यक्ति गोष्ठामाहिल को आचार्य के उत्तराधिकारी बनाये जाने के पक्ष में थे। उत्तराधिकारी की नियुक्ति के प्रश्न पर अपने शिष्य-समूह और संघ में मतभेद देखकर भी आचार्य संघहित को सर्वोपरि मानकर अपने महान् पावन उत्तरदायित्व के निर्वहन में कृतसंकल्प रहे। बहुमत फल्गुरक्षित के पक्ष में था। गोष्ठामाहिल भी बड़े तार्किक और विद्वान् मुनि थे। परन्तु आचार्य रक्षित अपने सहोदर फल्गुरक्षित और गोष्ठामाहिल की अपेक्षा दुर्बलिका पुष्यमित्र को आचार्य पद पर नियुक्त किये जाने की दशा में संघ का सर्वातोमुखी विकास, हित और उज्ज्वल भविष्य देख रहे थे।
संघ के सभी पक्षों का पूर्ण संतोषप्रद समाधान हो जाये और संघ के भावी उत्कर्ष एवं उज्ज्वल भविष्य में किंचित्मात्र भी कोर कसर न रह जाए, इसलिए अपना उत्तराधिकारी नियुक्त करने के प्रश्न के सम्बन्ध में जब आर्य रक्षित ने अपने शिष्य समूह में मतभेद देखा तो उन्होंने सूझबूझ से काम लिया। सबको एकत्रित कर ये बोले - 'कल्पना करो कुछ इंगितज्ञ श्रावकों ने यहाँ तीन घड़े प्रस्तुत किये। उनमें से एक घड़े में उड़द, दूसरे में तेल और तीसरे में घृत भरा और साधु समूह एवं समस्त संघ के समक्ष उन तीनों घड़ों को दूसरे तीन घड़ों में क्रमशः उल्टा करवा दिया। उन तीनों रिक्त घड़ों में कितना उड़द, तेल और घृत अवशिष्ट रहेगा?'
आर्य रक्षित का प्रश्न सुनकर शिष्यों एवं श्रावक प्रमुखों ने उत्तर दिया 'भगवन्! जो उड़द से भरा था, वह पूर्णतः रिक्त हो जायेगा, तेल के घट में थोड़ा बहुत तेल अवशिष्ट रह जायेगा पर घृत के घट में घृत इधर-उधर चारों ओर चिपके रहने के कारण पर्याप्त मात्रा में अवशिष्ट रह जायेगा।'
आर्य रक्षित ने अपने शिष्य समूह और संघ मुख्यों को सम्बोधित करते हुए निर्णायक स्वर में कहा- 'उड़द धान्य के घट की तरह मैं अपना समस्त ज्ञान दुर्बलिका पुष्यमित्र में उँडेल चुका हूँ। जिस प्रकार पूरी तरह उँडेल दिये जाने पर भी तेल तथा घी के घड़े में थोड़ी मात्रा में तेल और उससे अधिक मात्रा में घृत अवशिष्ट रह जाता है, उसी प्रकार शेष शिष्य मेरे सम्पूर्ण ज्ञान को ग्रहण नहीं कर सके हैं।
आर्य रक्षित के इस संक्षिप्त किन्तु सारगर्भित एवं बुक्ति-युक्त निर्णय से उत्तराधिकारी का प्रश्न तत्क्षण हल हो गया। शिष्य समूह सहित समस्त संघ ने सर्व सम्मति से दुर्बलिका पुष्यमित्र को आर्य रक्षित का उत्तराधिकारी स्वीकार किया।
आर्य रक्षित ने नवनिर्वाचित आचार्य दुर्बलिका पुष्यमित्र को संघ संचालन विषयक निर्देश दिये। समस्त संघ ने दुर्बलिका पुष्यमित्र को आरक्षित के उत्तराधिकारी के रूप में स्वीकार किया।
गोष्ठामाहिल आर्य दुर्बलिका पुष्यमित्र के गणाचार्य पद पर नियुक्त किये जाने की बात सुनकर बड़े खिन्न हुए। वे मन ही मन गणाचार्य के प्रति विद्वेष रखने लगे। गणाचार्य द्वारा की जाने वाली वाचना के अनन्तर मुनि विन्द्य जब अर्थ वाचना करते, तब गोष्ठामाहिल वहाँ उपस्थित होते और आठवें पूर्व की व्याख्या सुनते। अपने अन्तर में उत्पन्न हुए गणाचार्य के प्रति विद्वेष और कांक्षामोह के उदय के कारण वे आठवें पूर्व के भावों को यथार्थ रूपेण ग्रहण न कर उनका विपरीत अर्थ ही ग्रहण करने लगे। आगे इस प्रकार विपरीत अर्थ करने के कारण गोष्ठामाहिल प्रभु महावीर के सात निहवों में से एक निहव हुए। भविष्य ने भी सिद्ध कर दिया कि आचार्य आर्यरक्षित का निर्णय वस्तुतः बड़ा दूरदर्शितापूर्ण, सर्वथा उपयुक्त तथा भगवान् महावीर के धर्म-संघ की भावी संकट से रक्षा करने वाला था। जिससे संघ के प्रत्येक सदस्य के मुख से वही उद्गार निकले- 'आर्य रक्षित वस्तुत: महान् भविष्य द्रष्टा थे।' उनका निर्णय अतीव उपयुक्त एवं दूरदर्शितापूर्ण था।