आचार्य प्रभव की दूरदर्शिता का उदाहरण
जम्बू स्वामी के पश्चात् भगवान महावीर के तृतीय पट्टधर आचार्य प्रभव स्वामी हुए। आचार्य प्रभव के आचार्य काल में श्रमण समुदाय बड़ा विशाल था। उनके सुविशाल शिष्य समूह में अनेक श्रमण द्वादशांगी के पारंगत और चतुर्दश पूर्वधर होंगे, पर तात्कालिक परिस्थियों में अपने पश्चात् आचार्य पद के लिए जिन प्रकट गुणों की आवश्यकता थी, वे गुण आचार्य प्रभव ने गृहस्थ शय्यंभव ब्राह्मण में देखे और उन्होंने आचार्य पद के लिए दीक्षावृद्ध, ज्ञानवृद्ध और विद्वान् शिष्यों में से किसी को न चुनकर उनके पश्चात् दीक्षित आर्य शय्यंभव को चुना।
प्रसंग इस प्रकार है
एक बार रात्रि के समय आचार्य प्रभवस्वामी योगसमाधि लगाये ध्यान में मग्न थे। शेष सभी साधु निद्रा में सो रहे थे। अर्द्धरात्रि के पश्चात् ध्यान की परिसमाप्ति पर उनके मन में विचार आया कि उनके पश्चात् भगवान महावीर के सुविशाल धर्मसंघ का सम्यक् रूपेण संचालन करने वाला पट्टधर बनने योग्य कौन है? उन्होंने श्रमणसंघ के अपने सभी साधुओं की ओर ध्यान दिया पर उनमें से एक भी साधु उन्हें अपनी अभिलाषा के अनुकूल नहीं जंचा । तत्पश्चात् उन्होंने अपने साधु संघ से ध्यान हटा कर जब अन्य किसी योग्य व्यक्ति को खोजने के लिए श्रुतज्ञान का उपयोग लगाया, तो उन्होंने अपने ज्ञानबल से देखा कि राजगृह नगर में वत्स गोत्रिय ब्राह्मण सय्यंभवभट्ट है, जो कि उन दिनों यज्ञानुष्ठान में निरत है, वह भगवान महावीर के धर्मसंघ के संचालन के भार को वहन करने में पूर्णरूपेण समर्थ हो सकता है।
दूसरे ही दिन गणनायक प्रभवस्वामी अपने साधुओं के साथ विहार करके राजगृह नगर आये। वहाँ पहुँचने पर उन्होंने अपने दो साधुओं को आदेश दिया श्रमणों ! तुम दोनों सय्यंभव ब्राह्मण के यज्ञ में भिक्षार्थ जाओ। वहाँ जब ब्राह्मण लोग तुम्हें भिक्षा देने से इन्कार कर दें तो तुम उच्च स्वर से निम्न श्लोक उन लोगों को सुनाकर पुनः यहाँ लौट आना
'अहो कष्टमहो कष्टं, तत्वं विज्ञायते न हि ।'
अर्थात् अहो ! महान दुःख की बात है, बड़े शोक का विषय है कि सही तत्त्व (परमार्थ) को नहीं समझा जा रहा है।
इस प्रकार आचार्य के संकेतानुसार तत्काल दो साधु भिक्षार्थ सय्यंभव भट्ट के विशाल यज्ञ मंडप में पहुँच कर भिक्षार्थ खड़े हुए । वहाँ यज्ञ में भाग लेने हेतु उपस्थित विद्वान् ब्राह्मणों ने उन दोनों साधुओं को भिक्षा देने का निषेध कर दिया। इस पर प्रभवस्वामी की आज्ञानुसार मुनि-युगल ने उच्च स्वर में ऊपरिलिखित श्लोक का उच्चारण किया और वे अपने स्थान की ओर लौट पड़े।
मुनि-युगल द्वारा उच्चारण किये गये उपरोक्त श्लोक को जब यज्ञानुष्ठान में निरत, पास ही बैठे हुए सय्यंभवभट्ट ने सुना तो वह इस पर ऊहापोह करने लगा। वह इस बात को भली-भाँति जानता था कि जैन श्रमण किसी दशा में असत्य-भाषण नहीं करते। अतः उसके मन में वास्तविक तत्त्वज्ञान के सम्बन्ध में अनेक प्रकार की शंकाएँ उठने लगीं। सय्यंभव के अन्तर्मन में उठे अनेक प्रकार के संशयों के तूफान ने जब उसे बुरी तरह झकझोरना प्रारम्भ किया, तो उसने यज्ञ का अनुष्ठान करवाने वाले अपने उपाध्याय से प्रश्न किया - पुरोहितप्रवर! वास्तव में तत्त्व का सही रूप क्या है? उपाध्याय ने उत्तर में कहा-यजमान ! सही ज्ञान का सार यही है कि वेद स्वर्ग और मोक्ष देने वाले हैं। वेदों के अतिरिक्त और कोई तत्त्व नहीं है।
इस पर सय्यभंवभट्ट ने क्रुद्ध स्वर में कहा-सच-सच बताओ कि तत्व क्या है, अन्यथा मैं तुम्हारा सिर, धड़ से अलग कर दूंगा। यह कह कर सय्यंभवभट्ट ने अपनी तलवार म्यान से बाहर निकाल ली। उपाध्याय ने काल के समान तलवार लिये अपने जजमान को सम्मुख देख कर सोचा कि अब सच्ची बात बताये बिना प्राण रक्षा असंभव है । यह विचार कर उसने कहा अहँत् भगवान द्वारा प्ररूपित धर्म ही वास्तविक तत्त्व और सही धर्म है। इसका सही उपदेश यहाँ विराजित आचार्य प्रभव से तुम्हें प्राप्त करना चाहिये।
उपाध्याय के मुख से सच्ची बात सुनकर सय्यंभव बड़ा प्रसन्न हुआ। उसने समस्त यज्ञोपकरण और यज्ञ के लिये एकत्रित पूरी की पूरी सामग्री उपाध्याय को प्रदान कर दी और स्वयं खोज करते हुए आचार्य प्रभव की सेवा में जा पहुंचा। सय्यंभवभट्ट ने आचार्य प्रभव के चरणों में प्रणाम करते हुए उनसे मोक्षदायक धर्म का उपदेश देने की प्रार्थना की। आचार्य प्रभव ने सम्यक्त्व सहित अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह रूप धर्म की महिमा समझाते हुए सय्यंभव से कहा कि वस्तुतः यही वास्तविक तत्व, सही ज्ञान और सच्चा धर्म है इस वीतराग मार्ग की साधना करने वाला जन्म, जरा, मरण के बन्धनों से सदा-सर्वदा के लिये छुटकारा पाकर अक्षय सुख की प्राप्ति कर लेने में सफल होता है।
आचार्य प्रभव के मुख से शुद्ध मार्ग का उपदेश सुनकर सय्यंभवभट्ट ने तत्काल ही प्रभव स्वामी के पास श्रमण दीक्षा ग्रहण कर ली। आचार्य प्रभव द्वारा सय्यंभवभट्ट को प्रतिबोध दिये जाने का यह उदाहरण इस बात का प्रमाण है कि हमारे महान आचार्य अपने आत्मकल्याण के साथ-साथ भविष्य कालीन पीढ़ियों को कल्याण का मार्ग बताने वाली श्रमण परम्परा को सुदीर्घ काल तक स्थायी और सशक्त बनाने के लिये भी अहर्निश प्रत्यनशील रहते थे।