सुदर्शन सेठ
प्राचीन काल में शुद्ध एक पत्नी व्रत को पालने वाले असंख्य पुरुष हो गये हैं। उनमें से संकट सहन करके प्रसिद्ध होने वाला सुदर्शन नाम का एक सत्पुरुष भी है। वह धनाढ्य, सुन्दर मुखाकृति वाला, कांतिमान् और युवावस्था में था। जिस नगरमें वह रहता था, उस नगरके राजदरबार के सामने से किसी कार्य-प्रसंग के कारण उसे निकलना पड़ा। वह जब वहाँ से निकला तब राजा की अभया नाम की रानी अपने आवास के झरोखे में बैठी थी। वहाँ से सुदर्शनकी ओर उसकी दृष्टि गयी। उसका उत्तम रूप और काया देखकर उसका मन ललचाया। एक अनुचरी को भेजकर कपटभाव से निर्मल कारण बताकर सुदर्शन को ऊपर बुलाया। अनेक प्रकार की बातचीत करने के बाद अभया ने सुदर्शन को भोग भोगने का आमंत्रण दिया। सुदर्शन ने बहुत-सा उपदेश दिया तो भी उसका मन शांत नहीं हुआ। आखिर तंग आकर सुदर्शन ने युक्ति से कहा, "बहिन ! मैं पुरुषत्वहीन हूँ!" तो भी रानी ने अनेक प्रकार के हाव भाव किये। परंतु उन सारी कामचेष्टाओं से सुदर्शन विचलित नहीं हुआ; इससे तंग आकर रानी ने उसे जाने दिया।
एक बार उस नगर में उत्सव था, इसलिये नगर के बाहर नगरजन आनंद से इधर-उधर घूमते थे। धूमधाम मची हुई थी। सुदर्शन सेठ के छ: देवकुमार जैसे पुत्र भी वहाँ आये थे। अभया रानी कपिला नामकी दासी के साथ ठाठबाट से वहाँ आयी थी। सुदर्शन के देवपुतले जैसे छः पुत्र उसके देखने में आये। उसने कपिलासे पूछा, "ऐसे रम्य पुत्र किसके हैं?" कपिला ने सुदर्शन सेठ का नाम लिया। यह नाम सुनते ही रानी की छाती में मानो कटार भोंकी गयी, उसे घातक चोट लगी। सारी धूमधाम बीत जानेके बाद माया-कथन गढकर अभया और उसकी दासी ने मिलकर राजा से कहा- "आप मानते होंगे कि मेरे राज्य में न्याय और नीति का प्रवर्तन है, दुर्जनों से मेरी प्रजा दुःखी नहीं है; परंतु यह सब मिथ्या है। अंतःपुर में भी दुर्जन प्रवेश करें यहाँ तक अभी अंधेर है! तो फिर दूसरे स्थानों के लिये तो पूछना ही क्या? आपके नगर के सुदर्शन नाम के सेठने मुझे भोग का आमंत्रण दिया; न कहने योग्य कथन मुझे सुनने पडे; परंतु मैंने उसका तिरस्कार किया। इससे विशेष अंधेर कौन सा कहा जाय !" राजा मूलतः कानके कच्चे होते हैं, यह बात तो यद्यपि सर्वमान्य ही है, उसमें फिर स्त्री के मायावी मधुर वचन क्या असर नहीं करेंगे ? राजा क्रोधायमान हुआ। उसने सुदर्शन को शूली पर चढा देने की तत्काल आज्ञा कर दी, और तदनुसार सब कुछ हो भी गया। मात्र सुदर्शन के शूली पर चढने की देर थी। चाहे जो हो परंतु सृष्टि के दिव्य भंडार में उजाला है। सत्य का प्रभाव ढका नहीं रहता। सुदर्शन को शूली पर बिठाया कि शूली मिट कर जगमगाता हुआ सोने का सिंहासन हो गया, और देवदुंदुभिका नाद हुआ, सर्वत्र आनंद छा गया। सुदर्शन का सत्य शील विश्वमंडल में झलक उठा। सत्य शील की सदा जय है। शील और सुदर्शन की उत्तम दृढता ये दोनों आत्मा को पवित्र श्रेणि पर चढाते है!
श्रीमद राजचंद्र प्रणीत
दृष्टांत कथा
हिंदी अनुवादक - श्री हंसराज जी जैन
किताब प्रकाशक -श्रीमद राजचंद्र जन्म भवन ववाणिया