मनुष्य के 303 भेद

मनुष्य के दो भेद- गर्भज और सम्मूर्छिमा गर्भज के तीन भेद- कर्मभूमि, अकर्मभूमि और अन्तर् द्वीपा।

मनुष्य के 303 भेद

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मनुष्य के 303 भेद

मनुष्य के दो भेद - गर्भज और सम्मूर्छिम।

गर्भज के तीन भेद - कर्मभूमि, अकर्मभूमि और अन्तर् द्वीप।


कर्मभूमि- जहाँ मनुष्य असि, मषी, कृषि द्वारा आजीविका करते हैं। जहाँ राजा-रानी हैं, राजा-रानी की आज्ञा चलती है। जहाँ लेना लेते हैं, देना देते हैं, विवाह-शादी होती हैं। जहाँ साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका रूप चार तीर्थ हैं। जहाँ मनुष्य मोक्ष के लिये क्रिया करते हैं। इस प्रकार की कर्म-प्रधान भूमि कर्म भूमि कहलाती है। कर्मभूमि में तीर्थंकर, विहरमान, गणधर, आचार्य, उपाध्याय, साधु, साध्वी, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, प्रतिवासुदेव आदि होते हैं। कर्मभूमि के पन्द्रह क्षेत्र हैं- पाँच भरत, पाँच ऐरवत, पाँच महाविदेह। इन पाँच-पाँच भेदों में से एक-एक भेद जम्बूद्वीप में, दो-दो धातकी खण्ड में तथा दो-दो अर्ध पुष्करद्वीप में है।

अकर्मभूमि - जहाँ असि, मषी, कृषि, वाणिज्य द्वारा आजीविका नहीं करते हैं। जहाँ खेत, सेत, अभयखेत नहीं हैं। जहाँ न राजा-रानी हैं और न उनकी आज्ञा ही चलती है। जहाँ लेने-देने का व्यवहार नहीं है। जहाँ विवाह-शादी नहीं होती। जहाँ साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका रूप चार तीर्थ नहीं हैं। जहाँ तीर्थंकर, विहरमान, गणधर आदि नहीं हैं तथा चक्रवर्ती बलदेव, वासुदेव, प्रतिवासुदेव आदि भी नहीं हैं। जहाँ दस जाति के कल्पवृक्ष मनुष्यों की आवश्यकताओं को पूर्ण करते हैं, उसे अकर्मभूमि कहते हैं। अकर्मभूमि के तीस क्षेत्र हैं- 5 देवकुरू, 5 उत्तरकुरू, 5 हरिवास, 5 रम्यक्ववास, 5 हेमवय, 5 ऐरण्यवय। इन पाँच-पाँच भेदों में से एक-एक जम्बूद्वीप में, दो-दो भेद धातकी खण्ड में तथा दो-दो भेद अर्ध पुष्करद्वीप में है। इन तीस क्षेत्रों में अकर्मभूमि के मनुष्य रहते हैं।

छप्पन अंतरद्विप - जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र की मर्यादा करने वाला चूल हेमवंत पर्वत है और जम्बूद्वीप के ऐरवत क्षेत्र की मर्यादा करने वाला शिखरी पर्वत है। इन पर्वतों में से प्रत्येक पर्वत के पूर्व पश्चिम की ओर लवण समुद्र में चारों विदिशाओं में सात-सात अंतरद्विप हैं जो दाढ़ाओं के आकार वाले हैं। इस प्रकार एक पर्वत के दोनों ओर अट्ठाईस अन्तद्वीप हैं और दोनों पर्वतों के मिलाकर छप्पन अंतरद्विप हैं।

इन अंतरद्विप में युगलिक मनुष्य रहते हैं। दस जाति के कल्पवृक्षों से इनकी आवश्यकताएँ पूर्ण होती हैं। ये एकान्त मिथ्यादृष्टि होते हैं। फिर भी अल्प कषायी होने से मरकर देवलोक में उत्पन्न होते हैं।

पन्द्रह कर्मभूमि, तीस अकर्मभूमि, छप्पन अंतरद्विप - ये मनुष्य के 101 भेद हुए। पर्याप्त अपर्याप्त के भेद से 202 भेद हुए।

पन्द्रह कर्मभूमि, तीस अकर्मभूमि और छप्पन अंतरद्विप - इन 101 गर्भज मनुष्यों के चौदह अशुचि स्थानों में उत्पन्न होने वाले सम्मूर्छिम मनुष्य भी 101 प्रकार के होते हैं। 

चौदह अशुचि स्थान ये हैं- (1) उच्चारेसु वा- बड़ीनीत (विष्ठा-मल) में। (2) पासवणेसु वा-लघुनीत (पिशाब) में। (3) खेलेसु वा-कफ-बलगम में। (4) सिंघाणेसु वा-नाक के मेल (सेडे) में। (5) वंतेसु वा-वमन में। (6) पित्तेसु वा-पित्त में। (7) पूएसु वा-राध में। (8) सोणियेसु वा-रूधिर में। (9) सुक्केसु वा-शुक्र-वीर्य में। (10) सुक्क पुग्गल परिसाडेसु वा-सूखे हुए वीर्य पुद्गलों के वापिस गीले होने पर। (11) विगय जीव कलेवरेसु वा-मनुष्य के मृत कलेवर में। (12) इत्थी पुरिस संजोएसु वा-स्त्री पुरुष के संयोग में। (13) णगर णिद्धमणेसु वा-नगर की खाल- नाली गटर में। (14) सव्वेस असुइट्ठाणेसु वा- सभी अशुचि स्थानों में- यानी उपर्युक्त तेरह स्थानों में से दो तीन चार आदि स्थान इकट्ठे होने पर उनमें जो सम्मूर्छिम जीव उत्पन्न होते हैं।

ये सम्मूर्छिम मनुष्य उपर्युक्त चौदह स्थानों में अन्तर्मुहूर्त में उत्पन्न होते हैं। इनकी अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग परिमाण होती है। आयु अन्तर्मुहूर्त की होती है। ये असंज्ञी मिथ्यादृष्टि होते हैं एवं अपर्याप्त अवस्था में ही मर जाते हैं।

उपर्युक्त 202 गर्भज मनुष्य और 101 सम्मूर्छिम मनुष्य के मिलाकर मनुष्य के 303 भेद हुए।

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