पच्चीस बोल - दसवें बोले कर्म आठ
दसवें बोले कर्म आठ - 1. ज्ञानावरणीय, 2. दर्शनावरणीय, 3. वेदनीय, 4. मोहनीय, 5. आयु, 6. नाम, 7. गोत्र और 8. अन्तराय।
आधार- पनवणा सूत्र पद 23, उत्तराध्ययन सूत्र अ. 33
कर्म-कषाय और योग के निमित्त से आत्मा के साथ लगे हुए कार्मण-पुद्गल-स्कन्ध को 'कर्म' कहते हैं।
जीव के द्वारा मिथ्यात्व आदि हेतुओं से जो क्रिया की जाती है, उसे 'कर्म' कहते हैं। कषाय और योग के निमित्त से आत्मा पर लगने वाले कार्मण-पुद्गलों को 'कर्म कहते हैं। ये कर्म चतुःस्पर्शी होने से केवलज्ञानी या विशेष अवधिज्ञानी को ही दिखाई देते हैं। कर्म के मुख्यतः
दो भेद हैं-घाती कर्म व अघाती कर्म।
घाती कर्म - जो आत्मा के मुल गुणों की घात करे, उसे 'घाती कर्म' कहते हैं। ये चार हैं-ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय कर्म।
अघाती कर्म - जो आत्मा के सामान्य गुणों को प्रभावित करके आत्मा को विकृत बना देते हैं, उन्हें 'अघाती कर्म' कहते हैं। मूल गुणों का घात नहीं करने के कारण उन्हें अघाती कर्म कहते हैं। ये भी चार हैं वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र कर्म।
दूसरी अपेक्षा से 2 भेद - 1. द्रव्य कर्म और 2. भाव कर्म।
द्रव्य कर्म-जो कार्मण पुद्गल आत्मा पर पूर्व में लगे हुए कर्मों पर चिपकते हैं, उन्हें 'द्रव्य कर्म' कहते हैं।
भाव कर्म- राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ आदि भावों के कारण द्रव्य कर्मों का बन्ध होता है, इन विकारी भावों को भाव कर्म कहते हैं।
द्रव्य कर्म के आठ भेद इस प्रकार हैं
1. ज्ञानावरणीय कर्म - यह आत्मा के ज्ञान गुण को आच्छादित करता है। जिस प्रकार बादल सूर्य के प्रकाश को आच्छादित करते हैं। ज्ञान का अर्थ है- नव तत्त्व और षट् द्रव्यों के सही स्वरूप की जानकारी होना। मति, श्रुत, अवधि, मन:-पर्यव और केवल-ज्ञानावरणीय - ये ज्ञानावरणीय कर्म के पाँच भेद होते हैं। आत्म-स्वरूप को जानने वाले की एवं निजज्ञान की आशातना करने पर 6 कारणों से ज्ञानावरणीय कर्म बंधता है। इस कर्म के क्षय से अनन्त ज्ञान या केवलज्ञान प्रकट होता है।
2. दर्शनावरणीय कर्म - यह आत्मा के दर्शन गुण को ढंकता है। जिस प्रकार द्वारपाल राजा के दर्शनों में बाधक बनता है, उसी प्रकार यह वस्तु तत्त्व के सामान्य गुण को जानने में बाधक बनता है। दर्शनावरणीय का क्षय होने पर अनन्त दर्शन का गुण प्रकट होता है। दर्शन और दर्शनवंतों की निन्दा आदि 6 कारणों से इस कर्म का बंध होता है। इस कर्म के क्षय से अनन्त दर्शन या केवल दर्शन प्रकट होता है।
3. वेदनीय कर्म - जिस कर्म के उदय से जीव साता-असातारूप वेदनाजन्य अनुभूति करे, उसे 'वेदनीय कर्म' कहते है। साता वेदनीय से सुखरूप तथा असाता वेदनीय से दुःखरूप वेदन होता है। शहद लिपटी तलवार को जीभ से चाटने के समान। जीवों को सुख उपजाने से साता वेदनीय तशा दुःख उपजाने से असाता वेदनीय कर्म का बंध होता है। इस कर्म के क्षय से निराबाध सुख प्रकट होता है।
4. मोहनीय कर्म - जिस कर्म के उदय से आत्मा मोहित बनकर स्व और पर का अथवा सत्-असत् का अथवा हेय, ज्ञेय, उपादेय का भान भूल जाता है, उसे 'मोहनीय कर्म' कहते हैं। जैसे-मदिरा पीया हुआ व्यक्ति बेभान हो जाता है। इसके मुख्य दो भेद हैं- 1. दर्शन मोहनीय और 2. चारित्र मोहनीय। दर्शन मोहनीय के कारण क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त नहीं हो पाती। चारित्र मोहनीय वीतरागता में बाधक बनता है। कषायों को पतला करके श्रेणि-आरोहण कर वीतरागता प्राप्त की जाती है। मिथ्यात्व मोहनीय के उदय में नौ पूर्व की तीसरी आचार वस्तु तक का ज्ञान एवं आचरण भी मोक्ष प्राप्ति रूप निर्जरा का हेतु नहीं बन पाता। अतः सभी कर्मों में मोहनीय कर्म को सेनापति अथवा राजा की उपमा दी जाती है। साथ ही इस कर्म की उत्कृष्ट स्थिति भी कोडाकोडी सागरोपम की है। मिथ्यात्व एवं क्रोधादि कषायों के सेवन से मोहनीय कर्म बंधता है। दर्शन मोहनीय के क्षय से क्षायिक समकित और चारित्र मोहनीय के क्षय से अनन्त शक्ति या वीतरागता प्रकट होती है।
5. आयुष्य कर्म - जिस कर्म के उदय से जीव एक निश्चित भव में रुका रहता है एवं जिसके समाप्त होने पर मरणावस्था को प्राप्त हो दूसरे भव में जन्म लेता है, वह आयुष्य कर्म' कहलाता है। जिस प्रकार से कैदी कारागार में बन्द पड़ा रहता है, उसी प्रकार इस कर्म से जीव नहीं चाहते हुए भी निश्चित समय तक एक शरीर में बंधा रहता है। इस कर्म के उदय से जीव चारों गतियों में जन्म-मरण करता रहता है और इसके क्षय होने पर अमरत्व गुण प्रकट होता है। आयुष्य कर्म के मुख्य चार भेद हैं-नरकायु, तिर्यंचायु, मनुष्यायु और देवायु। नरकायु चार कारणों से बंधती है - 1. महा आरंभ करने से, 2. महापरिग्रह करने से, 3. पंचेन्द्रिय जीव का वध करने से और 4. मद्य-मांस का सेवन करने से। तिर्यंचायु चार कारणों से बन्धती है - 1. माया करने से, 2. गूढ माया करने से, 3. असत्य वचन बोलने से और 4. खोटा माप-तोल करने से। मनुष्यायु चार कारणों से बन्धती है- 1. प्रकृति (स्वभाव) से सरल, 2. प्रकृति से विनम्र, 3. दया-अनुकम्पा भाव और 4. मद-मत्सर (ईया) रहित होने से। देवायु चार कारणों से बन्धाती है- 1. सराग संयम पालन करने से, 2. संयमासंयम (श्रावक-व्रतों का पालन करने से), 3. अकाम निर्जरासे और 4. बाल (अज्ञान) तप करने से।
6. नाम कर्म - जिस कर्म के उदय से जीव अनेक प्रकार के शरीर, गति, जाति, इन्द्रिय आदि को प्राप्त करता है, उसे 'नाम कर्म' कहते हैं। जिस प्रकार चित्रकार अनेक प्रकार के, अनेक रंगों, डिजाइनों के चित्र बनाता है, ठीक उसी प्रकार नाम कर्म से भी जीव को अनेक प्रकार के शरीर, गति, जाति, इन्द्रियाँ आदि प्राप्त होते हैं। इस कर्म से जीव शुभ-अशुभ आदि अनेक रूपों में परिणत होता है। नामकर्म शुभ और अशुभ दो प्रकार का है। इसके प्रत्येक के बंध के चार-चार कारण हैं। मन, वचन व काय की सरलता व मद-मत्सर भाव से रहितता शुभ नामकर्म के कारण हैं तो इसके विपरीत अशुभ नाम के कारण हैं। शुभ नामकर्म के उदय से जीव शरीर एवं वचन सम्बन्धी उत्कृष्टता और यश पाता है, जबकि अशुभ नाम कर्म के उदय से शरीर एवं वाणी सम्बन्धी निकृष्टता एवं अयश पाता है। इस कर्म के क्षय से (अमूर्त) अरूपीपन की प्राप्ति होती है।
7. गोत्र कर्म - जिस कर्म के उदय से जीव में उच्चता और नीचता के संस्कार हों अथवा ऊँच और नीच कुलों में जन्म लेना पड़े, उसे गोत्र कर्म कहते हैं। जिस प्रकार कुंभकार छोटे-बड़े आदि अनेक प्रकार के मिट्टी के बर्तन बनाता है, ठीक उसी प्रकार जीव गोत्र कर्म के उदय से विभिन्न ऊँच-नीच कुलों में जन्म लेता है। जाति, कुल आदि आठ प्रकार के मद करने से नीच गोत्र एवं मद नहीं करने से उच्च गोत्र का बन्ध होता है। गुणीजनों के प्रति विनय-आदर एवं बहुमान रखाने से भी उच्च गोत्र का बन्ध होता है। इस कर्म के क्षय से जीव अगुरूलघु गुण को प्राप्त करता है। अगुरू-लघुसे तात्पर्य-न हल्का न भारी, न ऊँचा न नीचा, सम अवस्था होना है।
8. अन्तराय कर्म - जिस कर्म के उदय से जीव की दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य ये पाँच शक्तियाँ प्रभावित हों अथवा इनमें बाधा उत्पन्न हो, उसे 'अंतराय कर्म' कहते हैं। इसके पाँच भेद हैं- 1. दानान्तराय, 2. लाभान्तराय, 3. भोगान्तराय, 4. उपभोगान्तराय और वीर्यान्तराय। इनमें अन्तराय देने से जीव अन्तराय कर्म बांधता है। इस कर्म के क्षय से उपयुक्त पाँचों शक्तियाँ अनन्त रूप में प्रकट होती हैं। अर्थात् अनन्त आत्म-सामर्थ्य नामक गुण प्रकट होता है।