पच्चीस बोल-चारित्र पाँच
पच्चीसवें बोले चारित्र पाँच- 1. सामायिक चारित्र, 2. छेदोपस्थापनीय चारित्र, 3. परिहार विशुद्धि चारित्र, 4. सूक्ष्मसंपराय चारित्र और 5. यथाख्याच चारित्र।
आधार-ठाणांग-5, सूत्र-428, अनुयोगद्वार
चारित्र-आत्मा का विभाव से स्वभाव की ओर गति करना चारित्र हैं। जिसके द्वारा मोक्ष प्राप्त किया जा सके, उसे 'चारित्र' कहते हैं। सभी पाप वृत्तियों के त्याग को भी 'चारित्र' कहते हैं। तात्पर्य यह है कि पाप व सावध प्रवृत्ति का त्याग कर मोक्ष हेतु संयम में जो शुभ या शुद्ध प्रवृत्ति की जाती है, उसी का नाम चारित्र है। चारित्र मोहनीय कर्म के क्षय, उपशम या क्षयोपशम से होने वाले विरति रूप परिणाम को 'चारित्र' कहते हैं।
चारित्र के पाँच भेद इस प्रकार हैं
१. सामायिक चारित्र - सामायिक शब्द सम् + आय + इक, से बना है। जिसका अर्थ है - राग-द्वेष रहित आय अर्थात् ज्ञान, दर्शन, चारित्र का आना और मोक्षरूप फल का प्राप्त होना। आत्म स्वभाव में, समभाव में स्थिर होना सामायिक है। राग-द्वेष रहित आत्मा के क्रियानुष्ठान को 'सामायिक चारित्र' कहते हैं। सर्व सावद्य व्यापार का त्याग करना एवं निरवद्य व्यापार का सेवन करना 'सामायिक चारित्र' है। संयम ग्रहण करने पर साधक को सर्वप्रथम सामायिक चारित्र ही ग्रहण कराया जाता है। सामायिक चारित्र के दो भेद हैं -
(क) इत्वरिक - अल्प समय के लिए सामायिक चारित्र ग्रहण करना इत्वरिक सामायिक चारित्र है। पहले और अन्तिम तीर्शकर के शासन काल में यह चारित्र होता है। इसका काल जघन्य सात दिन मध्यम ४ महीने व उत्कृष्ट 6 माह होता है।
(ख) यावत्कथित - यावज्जीवन की सामायिक को यावत्कथित सामायिक चारित्र कहते हैं। अर्थात् जीवन पर्यन्त के लिए सामायिक चारित्र ग्रहण करना। यह चारित्र भरत-ऐरवत क्षेत्र में मध्य के 22 तीर्शकरों के शासन काल तथा महाविदेह क्षेत्र में पाया जाता है।
२. छेदोपस्थापनीय चारित्र - महाव्रतों में कोई दोष लगने पर अथवा बड़ी दीक्षा दिलाने पर पुन: महाव्रतों में आरोपित करना 'छेदोपस्थापनीय चारित्र' है। इसमें पूर्व की दीक्षा पर्याय का छेदन कर पुन: महाव्रतों में उपस्थापन किया जाता है। यह चारित्र प्रथम और अन्तिम तीर्शकर के शासन काल में होता है। इसके भी दो भेद हैं
(अ) सातिचार - मूल गुणों का घात होने पर, अत्यधिक दोष लगने पर प्रायश्चित्त स्वरूप दीक्षा पर्याय में कमी करना अथवा नवीन दीक्षा देना (पुरानी दीक्षा पर्याय का छेदन करके) 'सातिचार छेदोपस्थापनीय चारित्र' कहलाता है।
(ब) निरतिचार - छोटी दीक्षा वालों को जघन्य सात दिन, मध्यम 4 माह, उत्कृष्ट 6 माह बाद बड़ी दीक्षा देना 'निरतिचार छेदोपस्थापनीय चारित्र' है। पूर्व तीर्शकर के शासनवर्ती साधु-साध्वी को भी वर्तमान तीशंकर के शासन में आने पर उन्हें इस छेदोपस्थापनीय चारित्र में आरोपित किया जाता है।
३. परिहारविशुद्धि चारित्र - यह चारित्रकर्मों का विशेषरूप से परिहार करने. अलग हटाने तथा आत्मा को शुद्ध बनाने की करते हैं। नौ मुनि इस चारित्र की एक साथ आराधना करते हैं। चार साधु छः मास तक तप करते हैं। चार साधु उनकी सेवा करते हैं तथा एक वाचनाचार्य होता है, जिसे आठों साधुवंदना करते हैं। प्रथम छः माह बाद सेवा करने वाले 4 साधु तप करते हैं तथा तप करने वाले सेवा करते हैं, किन्तु वाचनाचार्य वही रहता है। फिर 12 माह बाद वाचनाचार्य 6 माह तक तप करता है। शेष आठ में सात उनकी सेवा करते हैं तथा एक साधु वाचनाचार्य बनता है। इस प्रकार कुल 18 माह तक यह क्रम चलता है। तप करने वाले गर्मी में - जघन्य उपवास, मध्यम बेला व उत्कृष्ट तेला, सर्दी में - जघन्य बेला, मध्यम तेला, उत्कृष्ट चौला तथा चातुर्मास में - जघन्य तेला, मध्यम चौला, उत्कृष्ट पचौला (पाँच उपवास) कर पारणा आयम्बिल से करते हैं। वाचनाचार्य व वैयावृत्य करने वाले नित्य भोजी भी हो सकते हैं। किन्तु इनका भोजन भी आयंबिल युक्त होता है। जो साधु जघन्य नौ पूर्व की तीसरी आचार वस्तु के ज्ञाता हो, कम से कम 20 वर्ष की दीक्षा पर्याय हो तथा आयु 29 वर्ष से कम न हो, वे ही इस चारित्र का पालन कर सकते हैं। यह चारित्र तीर्थकर प्रभु के पास अथवा जिसने परिहारविशुद्धि चारित्र की आराधना कर रखी है, उनके सान्निध्य में अंगीकार किया जा सकता है। यह चारित्र भरत, ऐरावत क्षेत्र में प्रथम व अन्तिम तीर्थकर के शासन काल में ही मिलता है। मध्य के 22 तीर्थकर एवं महाविदेह क्षेत्र में छेदोपस्थापनीय तथा परिहार विशुद्धि ये दोनों ही चारित्र नहीं पाये जाते हैं।
4. सूक्ष्म सम्पराय चारित्र - जिन अणगारों में बादर कषाय का उदय बिल्कुल भी नहीं रहता तथा सूक्ष्म कषाय में भी मात्र संज्वलन लोभ कषाय का ही उदय शेष बचता हो, उन महापुरुषों के चारित्र को 'सूक्ष्म सम्पराय चारित्र' कहते हैं। इस चारित्र के धारक दो श्रेणि वाले होते हैं। 1. उपशम श्रेणि वाले और 2. क्षपक श्रेणि वाले। यदि उपशम श्रेणिवाले हैं तो वे दशवें से ग्यारहवें गुणस्थान में जाते हैं तथा क्षपक श्रेणि वाले दसवें से सीधे बारहवें गुणस्थान में जाते हैं।
५. यथाख्यात चारित्र - राग-द्वेष, कषाय, मोह आदि के उदय से पूर्णतः मुक्त होकर तीर्थकर भगवन्तों द्वारा जो शुद्ध चारित्र का स्वरूप प्रतिपादित किया गया है, उसे उसी रूप में आराधान करना, पालना 'यथाख्यात चारित्र' कहलाता है। इस चारित्र के प्रमुख दो भेद इस प्रकार हैं -
(क) उपशान्तकषाय वीतरागी - जिन्होंने सम्पूर्ण मोहनीय कर्म का सर्वथा प्रकार से उपशम कर दिया है, तक्षा किसी भी प्रकार के मोह का उदय नहीं है, ऐसे ग्यारहवें गुणस्थानवर्ती साधु उपशान्त कषाय वीतरागी' कहलाते हैं।
(ख) क्षीणकणाय वीतरागी- जिन्होंने मोहनीय कर्म का सम्पूर्ण क्षय कर दिया है ऐसे बारहवें, तेरहवें और चौदहवें गुणस्थानवर्ती साधु क्षीणकषाय वीतरागी कहलाते हैं।
भरत क्षेत्र में वर्तमान समय में सामायिक व छेदोपस्थापनीय ये दो चारित्र ही पाये जाते हैं। शेष तीन नहीं पाये जाते।