केवलज्ञानावरणीय कर्म
जिज्ञासा - केवलज्ञानावरणीय कर्म किसे कहते हैं ?
समाधान - जिस कर्म के कारण जीव को केवलज्ञान प्रकट नहीं हो सके, उसे केवलज्ञानावरणीय कर्म कहते हैं। इस कर्म की ऐसी विशेषता है कि जब तक यह कर्म उदय में रहता है तब तक सर्वघाती रूप में ही उदय में रहता है। इस कर्म का देशघाती उदय नहीं होता है। यही कारण है कि इस कर्म के उदय रहते जीव को केवल ज्ञान प्रकट नहीं हो पाता है।
जिज्ञासा-क्या केवलज्ञान की प्राप्ति मात्र केवलज्ञानावरणीय कर्म के क्षय होने से हो जाती है?
समाधान-नहीं, केवलज्ञानावरणीय कर्म के साथ ही सम्पूर्ण ज्ञानावरणीय कर्म का क्षय होता है तथा दर्शनावरणीय व अन्तराय कर्मों का क्षय भी अनिवार्य है। मोहनीय का सम्पूर्ण क्षय तो दसवें गुणस्थान के अन्त में हो जाता है, उसके बाद में ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय तीन घाती कर्मों का भी बारहवें गुणस्थान के अन्त में एक साथ सम्पूर्ण क्षय होता है, तब कहीं जाकर तेरहवें गुणस्थान के प्रथम समय में उस जीव को केवलज्ञान की प्राप्ति होती है।
जिज्ञासा- केवल ज्ञान की क्या-क्या प्रमुख विशेषताएँ है
समाधान- 1. केवलज्ञान के द्वारा समस्त द्रव्यों की समस्त पर्यायों को सीधे आत्मा से परिपूर्ण रूप से प्रत्यक्ष जाना जाता है। दूसरे शब्दों में अनन्तकाल पहले की, अनन्तकाल बाद की तथा वर्तमान की सभी रूपी अरूपी द्रव्यों की समस्त पर्यायों को सीधे आत्मा से प्रत्यक्ष जाना जाता है।
2. केवलज्ञान प्रकट होने के बाद वापस नहीं जाता है। सिद्धावस्था में भी अनन्तानन्त काल तक, सदाकाल बना रहता है।
3. केवलज्ञान शाश्वत तथा अप्रतिपाती होता है। मति आदि चार ज्ञानों के बिना यह अकेला ही परिपूर्ण रूप में होता है।
4. जितना केवली भगवन्त जानते हैं, उसका अनन्तवाँ भाग ही बे प्रकट कर पाते हैं, क्योंकि पदार्थ अनन्त होते हैं, आयु सीमित होती है तथा वाणी क्रम से ही प्रवृत्त हो पाती है।
5. तीर्थंकर, सामान्य केवली केवल ज्ञान द्वारा पदार्थों को जानकर जो कथन करने योग्य होता है, उन्हें वचनयोग की सहायता से प्रकट करते हैं। देशना रूप वह वचनयोग श्रोताओं के लिए द्रव्यश्रुत होता है। क्योंकि उस देशना रूप द्रव्यश्रुत को सुनकर श्रोतागण अपने भीतर में भाव श्रुत उत्पन्न कर लेते हैं। सामान्य केवलियों, तीर्थकरों का वचनयोग श्रोताओं के भाव श्रुत की उत्पत्ति में सहायक बनने के कारण उसे द्रव्य श्रुत रूप माना जाता है।
6. केवलज्ञान के साथ में भावश्रुत नहीं होता है। क्योंकि भाव श्रुत, श्रुत ज्ञान रूप है। मति, श्रुत आदि चार ज्ञान क्षायोपशमिक हैं, जबकि केवलज्ञान क्षायिक ज्ञान है।
7. केवल ज्ञान असहाय, अकेला, अखण्ड, अक्षय, अनन्त, अविकल्पित तथा अनावरित ज्ञान है। रूपी-अरूपी, सूक्ष्म-बादर सभी द्रव्यों एवं उनकी सभी पर्यायों को प्रत्यक्ष जानने वाला होता है।
8. सर्वक्षेत्र अर्थात् सम्पूर्ण लोकाकाश तथा अलोकाकाश में रहे हुए समस्त पदार्थों को उनकी कालिक अनन्त पर्यायों को केवलज्ञान से जाना जाता है।
9. सर्वभाव अर्थात् गुरु, लघु, गुरुलघु तथा अगुरुलघु इन सब पर्यायों को जानने वाला केवलज्ञान होता है।
10. केवलज्ञान तीर्थ और अतीर्थ दोनों अवस्थाओं में प्राप्त हो सकता है।
11. केवलज्ञान स्वलिङ्ग, अन्यलिङ्ग तथा गृहस्थलिङ्ग में से किसी भी लिङ्ग में रहते हो सकता है, किन्तु भावों में स्वलिङ्ग-रत्नत्रय आराधन अनिवार्य है। केवलज्ञान प्राप्ति के पश्चात् सामान्य केवलियों की यदि लम्बी आयु शेष है तो अन्यलिङ्ग, गृहस्थलिङ्ग बाले भी स्वलिङ्ग (जैन साधु का वेश) धारण कर लेते हैं।
12. केवलज्ञान प्राप्ति के पश्चात् कोई भी देवता उनका संहरण नहीं कर सकते हैं।
13. केवलज्ञान के धारक तीर्थंकर भगवान एवं सामान्य केवली महाविदेह क्षेत्र में सदाकाल मिलते हैं।
14. केवलज्ञान में परिणाम वर्धमान तथा अवस्थित ये दो मिलते हैं। हीयमान परिणाम नहीं होता है। तेरहवें गुणस्थान में अन्तर्मुहर्त आयु शेष रहते तथा चौदहवें गुणस्थान में वर्धमान परिणाम होते हैं। तेरहवें गुणस्थान में यदि अधिक आयु हो तो उत्कृष्ट देशोन क्रोड़ पूर्व तक अवस्थित परिणाम ही रहते हैं।
15. केवलज्ञान के रहते तेरहवें गुणस्थान में किसी किसी के अन्तर्मुहूर्त आयु शेष रहते केवली समुद्घात होती है, तीर्थंकरों के भी केवली समुद्घात हो सकती है। सब के होना अनिवार्य नहीं हैं।
16. केवल ज्ञानी तेरहवें गुणस्थान में महाविदेह क्षेत्र की अपेक्षा पृथक्त्व करोड़ (2 से 9 करोड़) सदाकाल मिलते हैं। चौदहवें गुणस्थान वाले तो कभी मिलते हैं, कभी नहीं भी मिलते हैं। यदि मिले तो अधिकतम पृथक्त्व सौ तक मिल सकते हैं।
17. एक समय में एक साथ उत्कृष्ट 108 केवली नये बन सकते हैं। पूर्व प्रतिपन्न तो सिद्धों की अपेक्षा अनन्त हैं। केवलियों का जघन्य क्षेत्र लोक का असंख्यातवाँ भाग होता है और उत्कृष्ट क्षेत्र केवली समुद्घात की अपेक्षा से सम्पूर्ण लोक प्रमाण होता है।
18. केवली भगवन्तों का उपदेश छदमस्थों की तरह नहीं होता। छद्मस्थों द्वारा तो भाव श्रुत के आधार पर द्रव्यश्रुत रूप उपदेश दिया जाता है, किन्तु तीर्थंकर, केवली भगवन्त मन में सोचकर या चिन्तन करके नहीं बोलते। उनके भाव मन नहीं होता। तीर्थंकर जो उपदेश देते हैं, वह तो तीर्थकर नाम कर्म के उदय के कारण होने वाला वचनयोग (वचनात्मक प्रवृत्ति) ही है। कहा भी है कि सभी जीवों की दया, रक्षा एवं कल्याण की भावना से ओतप्रोत होने से तीर्थंकर भगवान उपदेश (देशना) फरमाते हैं।
19. केवल ज्ञान से सम्बन्धित केवल ज्ञानावरणीय ऐसी कर्म प्रकृति है, जिसका पहले से लेकर दसवें गुणस्थान तक जब तक बन्ध होता है, तब तक सर्वघाती रूप ही बन्ध होता है। उदय भी पहले से बारहवें गुणस्थान तक जब तक रहता है, तब तक सर्वघाती रूप ही उदय रहता है। दूसरे शब्दों में यह एक ऐसी कर्म प्रकृति है जिसका कभी क्षयोपशम होता ही नहीं है।
20. केबलज्ञान की ऐसी विशेषता है कि इसके प्रकट होते ही संसार की समस्त लिपियाँ, बोलियाँ, भाषाएँ, कलाएँ, विद्याएँ, मन्त्र, तन्त्र, यन्त्र आदि केवलज्ञान में स्पष्ट झलकने लग जाते हैं, केवली के ज्ञान से कुछ भी छुपा नहीं रहता है।
21. उत्कृष्ट श्रुतज्ञानी चौदह पूर्वो के ज्ञान से, दृष्टिवाद के ज्ञान से, सम्पूर्ण द्वादशाङ्गी के ज्ञान से जितना जानते हैं, उससे अनन्तगुणा केवलज्ञानी केवलज्ञान के द्वारा जानते हैं। उत्कृष्ट श्रुतज्ञानी अथवा चार ज्ञान के धारक को तो उपयोग लगाना (सोचनाविचारना) पड़ता है तब वस्तु तत्त्व का विशद एवं स्पष्ट ज्ञान होता है, किन्तु केवलज्ञान में तो बिना उपयोग, बिना सोचे, बिना विचारे सब कुछ प्रत्यक्ष, स्पष्ट एवं परिपूर्ण जानने में आता है।
22. केवलज्ञान से जानने को हस्तामलकवत् शब्द के द्वारा भी बतलाया जाता है। जिसका अर्थ है-हथैली में रखे हुए आँवले को जैसे हम प्रत्यक्ष जानते हैं, उसी प्रकार केवल ज्ञान से सब कुछ पदार्थों को प्रत्यक्ष जान लेते हैं। हस्तामलकवत् का दूसरा अर्थ करते हैं कि-हथेली में रहे हुए निर्मल जल के समान। जिस प्रकार हथैली में रहे हुए निर्मल जल को तथा हथैली की रेखाओं आदि को हम प्रत्यक्ष जान लेते हैं, ठीक इसी प्रकार केवलज्ञान से सम्पूर्ण द्रव्यों की सम्पूर्ण पर्यायों को एक साथ सीधे आत्मा से प्रत्यक्ष जान लेते हैं।
जिज्ञासा- केवल ज्ञानावरणीय को सर्वघाती क्यों माना जाता है?
समाधान- क्योंकि जो पदार्थ, जो विषय मात्र केवलज्ञान से ही जाने जा सकते हैं, अन्य ज्ञानों से नहीं जाने जा सकते उनके जानने में यह केवलज्ञानावरणीय कर्म पूरी तरह बाधक बनता है। जैसे अत्यन्त सूक्ष्म एवं अरूपी पदार्थ केवलज्ञान से ही प्रत्यक्ष जान सकते हैं, उन्हें जानने में पूरी तरह से बाधक बनने के कारण केवलज्ञानावरणीय को सर्वघाती माना जाता है। दूसरे शब्दों में जो अपने से सम्बन्धित विषय को (जानने के गुण का) पूरी तरह से घात करे, वह सर्वघाती कहलाता हैं।
जिज्ञासा- केवली भगवन्तों का उपयोग कितने समय में बदलता रहता है?
समाधान- केवली भगवन्तों का उपयोग प्रतिसमय बदलना माना जाता है। एक समय केवलज्ञान में उपयोग रहता है तो दूसरे समय में केवल दर्शन में उपयोग रहता है। यही क्रम चलता रहता है। यहाँ एक बात विशेष रूप से ध्यान रखना चाहिए कि केवलज्ञान-केवल दर्शन का गुण तो केवलियों में, तीर्थकरों में, सिद्ध भगवन्तों में सदाकाल शाश्वत ही रहता है, किन्तु उनका उपयोग अर्थात् आत्मा की जानने देखने रूप पर्याय प्रतिसमय बदलती रहती है। भगवती सूत्र 28/8 में ज्ञान को साकार तथा दर्शन को अनाकार मानते हुए इनके एक साथ (युगपत्) होने का निषेध किया गया है।
जिज्ञासा- क्या अनन्त केवलियों के केवलज्ञान से जानने में अन्तर होता है?
समाधान- चूँकि केवल ज्ञान क्षायिक ज्ञान है, सम्पूर्ण ज्ञानावरणीय कर्म, सम्पूर्ण घाती कर्मों के क्षय होने से प्रकट होता है, इसलिए वह अनन्त जीवों में भी एक समान ही प्रकट होता है। भेद-भिन्नता तथा अन्तर तो क्षायोपशमिक ज्ञान में होते हैं। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि अनन्त काल पहले जिन्हें केवलज्ञान हुआ, आज जिन्हें महाविदेह आदि में केवलज्ञान हो रहा है तथा भविष्य में अनन्तकाल बाद भी जिन्हें केवलज्ञान प्रकट होगा, उन सभी तीनों काल के केवलियों का केवल ज्ञान पूर्णतः एक समान ही होता है। उनके जानने में कोई अन्तर नहीं होता है। हाँ, इतना अवश्य है उनके देशना देने में, उपदेश फरमाने में शब्दों की दृष्टि से, क्षेत्र, व्यक्ति, वस्तु, अध्ययन, वर्ग, शतक, पद आदि के कथन में अन्तर हो सकता है, परन्तु मौलिक सिद्धान्त, सार एवं निष्कर्षों में भाव की दृष्टि से कोई अन्तर नहीं होता है।
जिनवाणी oct-2021 से साभार