जिज्ञासा- अवधि ज्ञानावरणीय कर्म किसे कहते हैं?
समाधान-जो कर्म अवधिज्ञान उत्पन्न होने में बाधक बने, अवधिज्ञान पर जो आवरण लाये, उसे अवधिज्ञानावरणीय कर्म कहते हैं। जिन जीवों को जब तक अवधिज्ञान उत्पन्न नहीं होता है तब तक उन जीवों के लिए यह प्रकृति सर्वघाती कहलाती है, किन्तु जब किन्हीं सन्नी जीवों को यह ज्ञान प्राप्त हो जाता है, तब उनके लिए यह प्रकृति देशघाती कहलाती है।
जिज्ञासा-अवधिज्ञान किसे कहते हैं?
समाधान-1. मन और इन्द्रियों की सहायता के बिना सीधे आत्मा से रूपी पदार्थों को जानना अवधि ज्ञान कहलाता है।
2. द्रव्य, क्षेत्र, काल तथा भाव की मर्यादा के साथ रूपी पदार्थों को सीधे आत्मा से जानना अवधिज्ञान कहलाता है।
3. अवधिज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से रूपी पदार्थों अर्थात् पुद्गलों को सीधे आत्मा से मर्यादित रूप से जानना अवधि ज्ञान कहलाता है।
जिज्ञासा- अवधिज्ञान किन-किन जीवों को प्राप्त हो सकता है?
समाधान- अवधिज्ञान चारों गति के सन्नी एवं पर्याप्तक जीवों को प्राप्त हो सकता है। नारकी तथा देवताओं में तो भव प्रत्यय होने के कारण बाटा बहती अवस्था में तथा उत्पत्ति के प्रथम समय में ही अवधि ज्ञान हो जाता है। जो पिछले भव-मनुष्य-तिर्यञ्च से लाते हैं, उनके तो साथ ही रहता है। जो पिछले भव से नहीं भी लाते हैं तो वे भी उन्हें नारकी देवता का भव प्रारम्भ होने के प्रथम समय में ही हो जाता है। मनुष्यों में जो कर्मभूमिज होते हैं, उन्हें पर्याप्त होने के बाद कभी भी हो सकता हैं। युगलिक मनुष्य तथा युगलिक तिर्यञ्चों को अवधिज्ञान नहीं होता है। एकेन्द्रिय, बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौरेन्द्रिय तथा असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय जीवों को भी अवधिज्ञान नहीं होता है।
जिज्ञासा- अवधिज्ञान से कम से कम कितने क्षेत्र के रूपी पदार्थों को जाना जा सकता है?
समाधान-अवधिज्ञान से कम से कम जितने क्षेत्र के रूपी पदार्थों को जान सकते हैं, उसे शास्त्रकारों ने नन्दी सूत्र में बतलाया है कि तीन समय के आहारक, सूक्ष्मपनक जीव (सूक्ष्म वनस्पतिकायिक) के शरीर की जितनी अवगाहना होती है, उतने क्षेत्र में रहे हुए रूपी पदार्थों को जान सकते हैं। इसे एक उदाहरण के द्वारा स्पष्ट किया गया है मानो एक हजार योजन की अवगाहना वाला महाशरीर वाला मत्स्य है, उसने अपने जीवन में सूक्ष्मपनक शरीर के योग्य गति, जाति, आयु आदि कर्मों का बंध कर लिया। जब मृत्यु होने में दो समय शेष रह गये तब वह मत्स्य पहले समय में अपने शरीर से सम्बन्धित आत्म-प्रदेशों को संकुचित करके अंगुल के असंख्यातवें भाग मात्र आत्मप्रदों का प्रतर बनाता है। दूसरे समय में उन आत्म-प्रदेशों को और भी संकुचित कर सूची रूप बना लेता है। मत्स्य भव की आयु पूर्ण होने पर वह आत्म-प्रदेशों को विशेष प्रयत्न से संकोच कर अंगुल के असंख्यातवें भाग मात्र सूक्ष्मपनक के रूप में मत्स्य के भव के छोड़े हुए शरीर के किसी एक भाग में जाकर उत्पन्न हो जाता है। सूक्ष्मपनक के भव के पहले समय में वह सर्वबन्ध करता है। दूसरे समय में देशबन्ध प्रारम्भ करता है। तीसरे समय में उस सूक्ष्मपनक जीव की जितनी अवगाहना होती है, उतना अवधिज्ञान का जघन्य क्षेत्र होता है। अर्थात् उतने क्षेत्र में रहे हुए पुद्गल स्कन्धों को अवधिज्ञानी जान सकता है।
जिज्ञासा- अवधिज्ञान के जघन्य विषय में सूक्ष्मपनक जीव के तीसरे समय का आहारक जितना क्षेत्र ही क्यों बतलाया है?
समाधान- सूक्ष्मपनक अर्थात् निगोद के जीव के पहले तथा दूसरे समय का बना हुआ शरीर अति सूक्ष्म होने के कारण अवधिज्ञान का जघन्य विषय का क्षेत्र नहीं बन पाता है तथा चौथे समय में वह शरीर अपेक्षाकृत अधिक बड़ा हो जाता है, इसलिए सूत्रकार ने तीसरे समय के आहारक सूक्ष्म निगोदिया जीव के शरीर प्रमाण क्षेत्र को ही अवधिज्ञान का जघन्य क्षेत्र बतलाया है।
जिज्ञासा- अवधिज्ञान का उत्कृष्ट क्षेत्र कितना होता है?
समाधान-अग्निकाय के सूक्ष्म, बादर तथा इनके अपर्याप्त और पर्याप्त इन चारों प्रकार के जीवों की उत्कृष्ट संख्या को अवधिज्ञानी के शरीर से प्रारम्भ कर एक दिशा में, एक श्रेणि में स्थापित कर दिया जाये। ऐसा करने पर वह श्रेणि इतनी लम्बी होगी कि लोकाकाश से भी आगे अलोकाकाश में पहुँच जायेगी। उस श्रेणि को सब दिशाओं में घुमाया जाये तो लोक प्रमाण असंख्य क्षेत्र खण्ड अलोक मिलाकर एक घनवृत्त बनता है। इतने क्षेत्र में यदि रूपी पदार्थ होते तो उन सब को जानने की क्षमता उत्कृष्ट अवधिज्ञान में होती है, इसलिए सम्पूर्ण लोक तथा लोक प्रमाण असंख्य खण्डों के बराबर अवधिज्ञान का उत्कृष्ट क्षेत्र माना जाता है। यद्यपि समस्त अग्निकायिक जीवों की श्रेणि सूची कभी किसी ने बनाई नहीं है और न ही उसका बनना सम्भव है।
जिज्ञासा- जब अलोक में रूपी पदार्थ है ही नहीं, तो फिर लोक प्रमाण असंख्य खण्डों को उत्कृष्ट अवधिज्ञान से जानने की बात कहने का क्या तात्पर्य है?
समाधान- यद्यपि यह बात सही है कि अलोक में मात्र आकाश-प्रदेश है, रूपी पदार्थ बिल्कुल भी नहीं हैं, फिर भी उत्कृष्ट अवधिज्ञान का सामर्थ्य बतलाने के लिए यह बात कही है कि वह सम्पूर्ण लोक में रहे हुए रूपी पदार्थों को तथा अलोक में लोक प्रमाण असंख्य खण्डों में यदि रूपी पदार्थ होते तो उनको भी जानने कीसामर्थ्य रखता है। इस सामर्थ्य से उस जीव को यह लाभ होता है कि वह लोक प्रमाण क्षेत्र में रहे हुए रूपी पदार्थों को अधिक विशुद्धता से, अधिक गहराई से, अधिक स्पष्टता से जानता है। जिन जीवों को ऐसा उत्कृष्ट अवधिज्ञान, परम अवधिज्ञान प्राप्त हो जाता है, उन्हें अन्तर्मुहूर्त में ही केवल ज्ञान प्राप्त हो जाता है। अत: यह स्पष्ट है कि ऐसा उत्कृष्ट अवधिज्ञान प्रायःप्राय: चारित्रवान अप्रमत्त संयत को होता है।
जिज्ञासा - मध्यम अवधिज्ञान किसे कहते हैं?
समाधान-
जघन्य तथा उत्कृष्ट अवधिज्ञान के बीच का क्षेत्र मध्यम अवधिज्ञान कहलाता है। जैसे-जैसे अवधिज्ञान का क्षेत्र बढ़ता जाता है, वैसे-वैसे काल की अपेक्षा से भी अवधिज्ञान का विषय बढ़ता जाता है। इसे निम्नांकित तालिका से आसानी से समझा जा सकता है
क्षेत्र
1. अंगुल का असंख्यातवाँ भाग
2. अंगुल का संख्यात भाग
3. एक अंगुल प्रमाण
4. अंगुल पृथक्त्व
5. एक हाथ
6. एक कोस
7. एक योजन
8. 25 योजन
9. भरत क्षेत्र
10. जम्बूद्वीप
11. मनुष्य लोक
12. रुचकवर द्वीप तक
13. संख्यात द्वीप तक
14. सम्पूर्ण लोक
15. सम्पूर्ण लोक के साथ असंख्यात लोक प्रमाण अलोक क्षेत्र ( इतने क्षेत्र प्रमाण में रहे हुए रूपी पदार्थों को जान सकते हैं।)
काल
1. आवलिका का असंख्यातवाँ भाग
2. आवलिका का संख्यात भाग
3. आवलिका से कुछ कम
4. एक आवलिका
5. अन्तर्मुहूर्त
6. कुछ कम एक दिन
7. दिवस पृथक्त्व
8. कुछ कम एक पक्ष
9. अर्धमास
10. एक मास से कुछ अधिक
11. एक बर्ष
12. वर्ष पृथक्त्व
13. संख्यात काल
14. देशोन पल्योपम
15. सम्पूर्ण लोक के साथ असंख्यात लोक प्रमाण अलोक क्षेत्र ( इतने क्षेत्र प्रमाण में रहे हुए रूपी पदार्थों को जान सकते हैं।)
जिज्ञासा- किन-किन गति के जीवों को कितनेकितने क्षेत्र विषयक अवधिज्ञान हो सकता है?
समाधान- 1. नारकी जीव जघन्य आधा कोस तथा उत्कृष्ट चार कोस क्षेत्र के रूपी पदार्थों को अबधिज्ञान से जान सकते हैं।
2. देवता-जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग क्षेत्र से लेकर उत्कृष्ट सम्पूर्ण त्रसनाड़ी में रहे हुए रूपी पदार्थों को अवधिज्ञान से जान सकते हैं। जघन्य अवधिज्ञान देवों में उत्पत्ति के समय होता है तथा उत्कृष्ट अवधिज्ञान पाँच अनुत्तर विमान के देवों को होता है।
3,4. मनुष्य-तिर्यञ्च में जघन्य अवधिज्ञान का क्षेत्र सूक्ष्म निगोद के उत्पत्ति के तीसरे समय के आहारक जीव की अवगाहना के बराबर होता है। उत्कृष्ट क्षेत्र-तिर्यञ्चों में असंख्यात द्वीप समुद्र तक के रूपी पदार्थों को जानना होता है जबकि मनुष्य में सम्पूर्ण लोक तथा अलोक में भी लोक प्रमाण असंख्यात खण्ड क्षेत्र उत्कृष्ट अवधिज्ञान का क्षेत्र होता है।
जिज्ञासा- किन-किन गति के जीवों को कितनेकितने काल विषयक अवधिज्ञान हो सकता है?
समाधान- 1. नारकी जीवों को जघन्य अवधिज्ञान एक दिवस से कुछ कम काल का तथा उत्कृष्ट अनेक दिवस काल तक के भूत-भविष्य का अवधिज्ञान हो सकता है।
2. तिर्यञ्चों में जघन्य-आवलिका का असंख्यातवाँ भाग काल विषयक तथा उत्कृष्ट पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग काल तक के भूत-भविष्य का अवधिज्ञान हो सकता है।
3. देवताओं में जघन्यआवलिका का असंख्यातवाँ भाग काल विषयक तथा उत्कृष्ट किञ्चित् न्यून पल्योपम काल तक के भूतभविष्य का अवधिज्ञान हो सकता है।
4. मनुष्य में जघन्य-आवलिका का असंख्यातवाँ भाग काल का तथा उत्कृष्ट असंख्यात उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी प्रमाण काल तक के भूत-भविष्य का अवधिज्ञान हो सकता है।
चारों गति के जीवों में अपने-अपने काल विषयक अवधिज्ञान का जो जघन्य उत्कृष्ट प्रमाण बतलाया है, उसका तात्पर्य यह है कि इतने-इतने काल के भूत-भविष्य की रूपी पदार्थों की पर्यायों को वे जीव अवधिज्ञान से प्रत्यक्ष जान सकते हैं।
जिज्ञासा- क्या तीर्थङ्कर बनने वाले के अलावा अन्य जीव भी मनुष्य के भव में उत्पन्न होते समय पिछले भव से अवधिज्ञान साथ में ला सकते हैं?
समाधान- तीर्थङ्कर बनने वाले तो नियम से अवधिज्ञान पिछले ( नारकी या देवता) के भव से लाते ही हैं, किन्तु तीर्थङ्करों के अलावा अन्य मनुष्य भी अवधिज्ञान साथ में ला सकते हैं। क्योंकि प्रज्ञापना सूत्र के 18वें कायस्थिति पद में अवधिज्ञान की उत्कृष्ट कायस्थिति 66 सागरोपम झाझेरी बतलाई है, वह तभी सम्भव है जब पिछले भव से भी लाये तथा अगले भव में भी साथ में ले जाये। एक भव की अपेक्षा तो 33 सागर की ही कायस्थिति हो पाती है। तीर्थकर बनने वाले तो उसी भव में नियमा मोक्ष प्राप्त करते हैं। वापस अवधिज्ञान लाने-ले जाने के लिए सामान्य मनुष्य होना आवश्यक है। इतना अवश्य ध्यान रखना चाहिए कि पिछले भव से जो अवधिज्ञान मनुष्य भव में साथ लाते हैं वह जघन्य भी नहीं होता, उत्कृष्ट भी नहीं होता, किन्तु मध्यम ही होता है।
जिज्ञासा- क्या वर्तमान में अवधिज्ञान भरत-ऐरावत क्षेत्र में मनुष्यों को हो सकता है?
समाधान- परम अवधिज्ञान उत्कृष्ट अवधिज्ञान प्राप्ति का तो शास्त्रों में निषेध है, किन्तु सामान्य अवधिज्ञान प्राप्ति का निषेध नहीं मिलता है। अत: भरत-ऐरावत क्षेत्र में भी कोई मनुष्य विशिष्ट साधना, तपस्या आदि करके अवधिज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम कर ले तो उसे अवधिज्ञान प्राप्त हो सकता है।
जिज्ञासा- सम्बद्ध-असम्बद्ध अवधिज्ञान किसे कहते हैं?
समाधान-जिस अवधिज्ञान के द्वारा जीव जितने क्षेत्र के रूपी पदार्थों को बिना अन्तर के लगातार जानता है, उसे सम्बद्ध अवधिज्ञान कहते हैं। जिस अवधिज्ञान के द्वारा जीव बीच-बीच के क्षेत्रों के रूपी पदार्थों को छोड़कर अन्तर से शेष क्षेत्रों के रूपी पदार्थों को जानता है, उसे असम्बद्ध अवधिज्ञान कहते हैं। यह बीच का अन्तर संख्यात-असंख्यात योजन तक का भी हो सकता है। सम्पूर्ण लोक तक के क्षेत्र के रूपी पदार्थों को जानने वाला अवधिज्ञान सम्बद्ध तथा असम्बद्ध दोनों प्रकार का हो सकता है, किन्तु जिस अवधिज्ञान से अलोक में भी देखने की सामर्थ्य रही हुई है, वह सम्बद्ध अवधिज्ञान ही होता है।
पत्रिका जिनवाणी से साभार (लेखक श्री धर्मचन्द्र जैन)