अभिनियोधिक (मति) ज्ञान

पांच ज्ञानों में प्रथम ज्ञान मतिज्ञान है। मतिज्ञान को परिभाषित करते हुए जैन सिद्धान्त दीपिका में कहा गया है - 'इन्द्रियमनोनिबन्धनं मतिः'। इन्द्रिय और मन की सहायता से होने वाला ज्ञान मतिज्ञान है। जैन आगमों में इसके लिए 'अभिनिबोधिक' शब्द का भी प्रयोग हुआ है।

अभिनियोधिक (मति) ज्ञान

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ज्ञान :- किसी विवक्षित ( जिसकी आवश्यकता या इच्छा हो । इच्छित । अपेक्षित ) पदार्थ के विशेष धर्म को विषय करने वाला बोध ज्ञान कहलाता है।

पांच ज्ञान १. अभिनियोधिक(मति)ज्ञान २. श्रुतज्ञान ३. अवधिज्ञान ४. मन:पर्यवज्ञान ५. केवलज्ञान

पांच ज्ञानों में प्रथम ज्ञान मतिज्ञान है। मतिज्ञान को परिभाषित करते हुए जैन सिद्धान्त दीपिका में कहा गया है - 'इन्द्रियमनोनिबन्धनं मतिः'। इन्द्रिय और मन की सहायता से होने वाला ज्ञान मतिज्ञान है। जैन आगमों में इसके लिए 'अभिनिबोधिक' शब्द का भी प्रयोग हुआ है। आभिनिबोधिक शब्द अभिनिबोध शब्द से व्युत्पन्न हुआ है। बोध का अर्थ है-जानना, ज्ञान। यहां ज्ञान दो विशेषणों से युक्त है - 'अभि' तथा 'नि'। अभि उपसर्ग अभिमुख अर्थ को तथा 'नि' उपसर्ग नियत अर्थ को प्रकट करता है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि अभिनिबोध वह ज्ञान है, जो पदार्थ के अभिमुख और निर्णायक होता है अत: यह वस्तु को ग्रहण करने वाला स्पष्ट बोध है। इसे स्थाणु (ठूठ) के दृष्टान्त से समझा जा सकता है। रात्रि में मन्द प्रकाश के कारण जब व्यक्ति कुछ दूरी पर स्थित पुरुष के आकार-प्रकार जैसे ठूठ (सूखा वृक्ष) को देखता है तब उसके मन में प्रश्न उठता है कि यह पुरुष है या स्थाणु। वह इसी चिंतन में रहता है, कोई निर्णय नहीं कर पाता किंतु थोड़ी देर बाद जब वह यह देखता है कि यहां से कोई पक्षी उड़ा है तो वह इस निर्णय पर पहुंच जाता है कि यह स्थाणु होना चाहिए क्योंकि पक्षी पुरुष के सिर पर नहीं अपितु स्थाणु पर ही संभव हो सकते हैं। इस प्रकार आभिनियोधिक ज्ञान इन्द्रिय एवं मन से होने वाला निश्चयात्मक और स्पष्ट ज्ञान है। यह मतिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से प्राप्त होता है।


आभिनिबोधिक (मति) ज्ञान :- अभि - अभिमुख होकर, नि - नियत (निश्चित) बोध - बोध करना अर्थात पाँच इन्द्रियों एवं मन के द्वारा अपने-अपने विषय के अभिमुख होकर जो नियत बोध किया जाता है, उसे आभिनिबोधिक ज्ञान कहते हैं। औत्पत्तिको आदि मति की प्रधानता के कारण इसे मतिज्ञान भी कहते हैं।

आभिनिबोधिक (मति) ज्ञान के चार भेद हैं- 1. अवग्रह 2. ईहा 3. अवाय 4. धारणा
अवग्रह रूप आभिनिबोधिक (मति) ज्ञान के पूर्व वस्तु के सामान्य धर्म का जो बोध होता है वह दर्शन कहलाता है। दर्शन के पश्चात् अवग्रह होता है।

दर्शन:- पदार्थ के सत्तारूप महासामान्य धर्म का बोध दर्शन कहलाता है। दर्शन के बाद ही अवग्रह, ईहा आदि संभव है।

1. अवग्रह :- दर्शन के पश्चात् वस्तु के अवान्तर (अपर) सामान्य को जानने वाले ज्ञान अवग्रह कहलाता है। जैसे- यह शब्द है, यह रूप है आदि।
2. इंहा :- अवग्रह से जाने हुए पदार्थ के किसी विशेष धर्म के निर्णय की अभिलाषा करने वाला यानी निर्णय की ओर उन्मुख ज्ञान ईहा कहलाता है। जैसे-सोहन और मोहन की पहचान में अनिर्णय से हटते हुए जानना कि यह सोहन होना चाहिए। ईहा में निर्णय नहीं होता किन्तु निर्णय की ओर झुकाव होता है।
3. अवाय :- ईहा के द्वारा जाने गये पदार्थ का निर्णयात्मक ज्ञान अवाय कहलाता है। जैसे यह सोहन ही है मोहन नहीं।
4. धारणा :- अवाय के द्वारा निर्णीत पदार्थ को स्मृति में बनाये रखना धारणा है। जैसे - सोहन को देखने के पश्चात् एक लंबे समय तक सोहन के रूप, रंग, आकार का संस्कार भीतर में बने रहना।

दर्शन, अवग्रह, ईहा आदि को एक उदाहरण से स्पष्ट किया जा रहा है:
जैसे- गहरे अंधेरे में किसी व्यक्ति को किसी पदार्थ के सत्तामात्र का बोध हुआ-यह दर्शन है। दर्शन के पश्चात् ऐसा ज्ञान होना कि यह कुछ स्पर्श हुआ है यह अवग्रह है। यह रस्सी का स्पर्श है या सांप का स्पर्श है? इस पर वह विचार करना कि यदि सांप होता तो वह स्पर्श होने पर अवश्य फुफकारता, डसने का प्रयत्न करता अथवा हलन-चलन करता, अतः यह रस्सी का स्पर्श होना चाहिए। शायद सांप का नहीं- इस प्रकार निर्णय की ओर झुकाव होना ईहा है। ईहा के पश्चात् यह पूर्ण निर्णय कर लेना कि यह रस्सी का ही स्पर्श है सांप का नहीं - यह अवाय है। वह व्यक्ति अवाय रूप संस्कारों को कुछ काल तक स्मरण में बनाये रखता है एवं कुछ समय पश्चात् विस्मरण हो जाने पर भी उसके भीतर में ये संस्कार जम जाते हैं। संस्कारों का भीतर में जमे रहना धारणा है। जिनके कारण पुनः कभी रस्सी का स्पर्श होते ही भीतर के संस्कार प्रकट होते हैं एवं वह अपेक्षाकृत शीघ्रता से निश्चय कर लेता है कि- "यह रस्सी का ही स्पर्श है" यह धारणा है।

ज्ञानोत्पत्ति का क्रम:- मतिज्ञान की उत्पत्ति इसी क्रम से होती है। दर्शन, अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा यह ज्ञानोत्पत्ति का क्रम है। दर्शन हुए बिना अवग्रह नहीं हो सकता, अवग्रह के बिना ईहा नहीं होती। इस प्रकार पूर्व-पूर्व के ज्ञानों के बिना बाद-बाद के ज्ञानों का होना संभव नहीं है। कभी-कभी हम अत्यन्त परिचित वस्तु को देखते हैं तो ऐसा लगता है कि मानो सीधा 'अवाय' ज्ञान हो गया है क्योंकि देखते ही वस्तु का निर्णयात्मक ज्ञान हो जाता है - परन्तु वास्तव में ऐसा नहीं होता। अति परिचित पदार्थ का ज्ञान भी दर्शन, क्रम से ही होता है। यह बात अलग है कि शीघ्रता के कारण वह क्रम हमें ज्ञात नहीं होता। जैसे- कमल के सौ पत्तों को एक-दूसरे पर जमाकर कोई पुरुष पूरी शक्ति के साथ यदि उन पत्तों पर भाले से प्रहार करे तो वह भाला इतनी शीघ्रता से पत्तों में घुस जायेगा कि ऐसा मालूम होगा मानो सब पत्ते एक साथ छिद गये हों परन्तु वस्तुतः ऐसा नहीं होता। यथार्थ में वह भाला पहले के बाद दूसरे पत्ते में घुसा, दूसरे के बाद तीसरे में, तीसरे के बाद चौथे में इस तरह वह सौवें पत्ते तक पहुँचा। जब स्थूल कमल के पत्तों के छेद का क्रम भी दृष्टिगोचर नहीं होता तो सूक्ष्म ज्ञानधारा का क्रम दिखलाई न पड़े तो क्या आश्चर्य है? अतएव क्रम चाहे प्रतीत हो, चाहे न हो, पर सर्वत्र यही क्रम होता है यह सुनिश्चित है।

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