अंजनासुन्दरी
ऐक राजा की दो पत्नियॉं थी। लक्ष्मीवती और कनकोदरी। लक्ष्मीवती रानी ने अरिहंत-परमात्मा की रत्नजड़ित मूर्त्ति बनवाकर अपने गृहचैत्य में उसकी स्थापना की। वह उसकी पूजा-भक्ति में सदा तल्लीन रहने लगी। उसकी भक्ति की सर्वत्र प्रशंसा होने लगी। 'धन्य है रानी लक्ष्मीवती को, दुख में सुमिरन सब करे, सुख में करे न कोय।’
यह रानी तो सुख में भी प्रभु सुमिरन करती हैं, धन्य है बच्चे, बूढे, नौजवान सभी के मुँह पर एक ही बात-धन्य है रानी लक्ष्मीवती, धन्य है इसकी प्रभु भक्ति। लोक में कहा जाता है कि जिसको ज्वर चढ़ जाता है, उसे अच्छे से अच्छा भोजन भी कडवा लगता है। रसगुल्ला खिलाओ, तो भी वह व्यक्ति थू थू करेगा। ईर्ष्यालु व्यक्ति की यही दशा होती है। रानी कनकोदरी के अंग-अंग में ईर्ष्या का बुखार व्याप्त हो गया। अपनी सौतन की प्रशंसा उससे सहन नहीं हो पाती थी। ‘लोग मेरी प्रशंसा क्यों नहीं करते?’ यह बात वह निरन्तर सोचती रहती थी।
‘तू भी धर्म कर, तू भी परमात्मा की पूजा-सेवा कर। अरे ! उससे भी बढ़कर लोग तेरी प्रशंसा करेंगे।’ ‘मैं करूँ या नहीं करूँ, मगर लक्ष्मीवती की प्रशंसा तो होनी ही नहीं चाहिये।’ इस प्रकार के विचारों की आंधी कनकोदरी के दिल और दिमाग में ताण्डव नृत्य मचाने लगी। देखिये ! ईर्ष्या की आग, ईर्ष्या की धुन कैसी-कैसी भयंकर विपदाएं खड़ी कर देती हैं? कनकोदरी ने निर्णय लिया ‘मूलं नास्ति कुतः शाखा’ जब बॉंस ही नहीं रहेगा, तो बांसुरी बजेगी कैसे? लोग इसकी प्रशंसा करते हैं आखिर क्यों? मूर्ति हैं इसलिये न ! मूर्ति है, इसलिय वह पूजा करती है, जिससेंे लोग प्रशंसा करते हैंऔर मुझे जलना पड़ता हैं। यदि मूल ही काट दिया जाये, तो बस, चलो छुट्टी !! और वह सक्रिय हो उठी। ईर्ष्या से अन्धी बनी हुई कनकोदरी एक भयंकर कृत्य करने के लिये तत्पर हो गयी। अत्यंत गुप्त रीति से वह गई गृहमंदिर में और परम कृपालु परमात्मा की मूर्ति को उठाकर डाल दी अहा हा! कूड़े करकट में अशुचि स्थान में अरे ! ऐसी गंदगी में जहॉं से भयंकर बदबू ही बदबू आ रही थी। मगर उस अज्ञानान्ध, ईर्ष्यान्ध स्त्री को इस बात का दुःख तो दूर, लेकिन अपार हर्ष था, अपनी नाक कटवा कर जैसे दूसरों के लिये अपशुकन करने का अनहद आनन्द हो।
ओह!…‘हंसता ते बॉंध्या कर्म, रोतां ते नवि छूटे रे। जैसा कर्म करेगा बंदे, वैसा ही फल पायेगा। काश! कनकोदरी यह जान पाती !! पूरे राज्य में हाहाकार मच गया। तहलका मच गया….चोरी….चोरी !! रानी लक्ष्मीवती की आँखें रो रो कर सूज गयी। हाय ! मेरे परमात्मा को कौन उठा ले गया? साध्वी जयश्री को इस बात का राज मिल गया। उन्होंने कनकोदरी को समझा-बुझा कर परमात्मा की पुनः स्थापना तो करवा दी। लेकिन कनकोदरी ने इस कृत्य की विधिवत् आलोचना नहीं ली। इसलिये उसे इस कृत्य का भयंकर परिणाम भुगतना पड़ा अंजना सुंदरी के भव में । अंजना सुंदरी को पति-वियोग में बाईस वर्ष तक रो…रो…कर व्यतीत करने पड़े। पूर्व भव में वसन्ततिलका ने उसके इस अपकृत्य का अनुमोदन किया था, अतः उसे भी अंजना के साथ दुःख सहने पड़े। यदि हम किये गये पापों की आलोचना नहीं करते हैं और प्रायश्चित लेकर शुद्ध नहीं बनते हैं, तो उसका अति भयंकर परिणाम भुगतना पड़ता है, जैसे अंजना सुन्दरी की जिन्दगी के वे वियोग भरे वर्ष आँसू की कहानी बन कर रह गये।