तीर्थंकर का बल
तीर्थंकर धर्मतीर्थ के संस्थापक और चालक होते हैं अतः उनका बलवीर्य जन्म से ही अमित होता है। नरेन्द्र-चक्रवर्ती ही नहीं सुरेन्द्र से भी तीर्थंकर का बल अनन्त गुना अधिक माना गया है। वासुदेव से द्विगुणित बल चक्रवर्ती का और चक्रवर्ती से अपरिमित बल तीर्थंकर का कहा गया है। वहाँ उदाहरण पूर्वक बताया गया है कि कूप तट पर बैठे हुए वासुदेव को सांकलों से बान्धकर सोलह हजार राजा अपनी सेनाओं के साथ पूरी शक्ति लगाकर खींचे तब भी वह लीला से बैठे खाना खाते रहे, तिलमात्र भी हिलें-डुलें नहीं।'
तीर्थंकर का बल इन्द्रों को भी इसलिए हरा देता है कि उनमें तन-बल के साथ-साथ अतुल मनोबल और अदम्य आत्मबल होता है। कथा-साहित्य में नवजात शिशु महावीर द्वारा चरणांगुष्ट से सुमेरु पर्वत को प्रकम्पित कर देने की बात इसीलिए अतिशयोक्तिपूर्ण अथवा असम्भव नहीं कही जा सकती क्योंकि तीर्थङ्कर के अतुल बल के समक्ष ऐसी घटनाएँ साधारण समझनी चाहिये। 'अहिंसा, संयम और तप रूप धर्म में जिसका मन सदा रमा रहता है, उसे देव भी नमस्कार करते हैं और सेवा करते रहते हैं' इस आर्ष वचनानुसार तीर्थंकर भगवान सदा देव-देवेन्द्रों द्वारा सेवित रहते हैं।