प्रभु महावीर को कैवल्य - प्राप्ति
प्रभु के दीक्षा लेने के पश्चात् तेरहवें वर्ष के मध्य में वैशाख शुक्ला दशमी को दिन के पिछले प्रहर में जृंभिका ग्राम के बाहर, ऋजुबालुका नदी के किनारे, जीर्णउद्यान में शालवृक्ष के नीचे प्रभु आतापना ले रहे थे। उस समय छट्टभक्त की निर्जल तपस्या से उन्होंने क्षपकश्रेणी का आरोहण कर, शुक्लध्यान के द्वितीय चरण में मोहनीय, ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय नामक चार घातिकर्मों का क्षय किया और उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र के योग में केवलज्ञान एवं केवलदर्शन की उपलब्धि की। भगवान भाव अर्हन्त कहलाए तथा सर्वज्ञ और सर्वदर्शी बन गए।
भगवान महावीर को केवलज्ञान प्राप्त होते ही देवगण पंचदिव्यों की वृष्टि करते हुए ज्ञान की महिमा करने आए। देवताओं ने सुन्दर और विराट समवशरण की रचना की। यह जानते हुए कि वहाँ संयमव्रत ग्रहण करने वाला कोई नहीं है, भगवान ने कल्प समझकर कुछ काल तक उपदेश दिया। मनुष्यों की उपस्थिति नहीं होने से प्रभु महावीर की प्रथम देशना में किसी ने व्रत-नियम ग्रहण नहीं किया। परम्परा के अनुसार तीर्थंकर का उपदेश व्यर्थ नहीं जाता, इस दृष्टि से अभूतपूर्व होने के कारण यह आश्चर्य माना जाता है।
शीलांक जैसे उच्चकोटि के विद्वान और प्राचीन आचार्य ने अपने 'चउवन महापुरिस चरियम्' में अभाविता परिषद् का उल्लेख तक नहीं किया है और लिखा है कि ऋजुबालुका नदी के तट पर हुई भगवान महावीर की प्रथम देशना में ही इन्द्रभूति आदि ग्यारह महाविद्वान् अपने-अपने शिष्यों सहित उपस्थित थे। भगवान ने उनकी मनोगत शंकाओं का निवारण किया और प्रभुचरणों में दीक्षित हो उन्होंने गणधर पद प्राप्त किया।