शालिभद्र और धन्नासेठ
मगध की राजगृही में श्रेष्ठपुत्र शालिभद्र रहते थे। शालिभद्र के पिता गोभद्र देवलोकवासी हो गये थे। वे स्नेहवश स्वर्ग से शालिभद्र और उनकी वधुओं के लिए नित नए वस्त्राभूषण और भोज्य पदार्थ पहुँचाया करते थे । शालिभद्र की माता भद्रा इतनी उदार थी कि जिन रत्नकंबलों को राजा श्रेणिक भी नहीं खरीद सके थे, नगरी का गौरव बढ़ाने के लिए उनको खरीद कर उनके दो-दो टुकड़े कर अपनी पुत्रवधुओं को पैर पोंछने के लिए दे दिये।
भद्रा के वैभव और उदारता से महाराज श्रेणिक भी दंग थे। वे भद्रा के यहाँ पहुँचे। शालिभद्र का ऐश्वर्य देखकर चकित रह गए।
राजा के दर्शनों के लिए भद्रा ने जब शालिभद्र को बुलाया तो उसने कहा- मेरे आने और देखने की क्या आवश्यकता है? जो भी मूल्य हो, देकर भंडार - घर में रखवा लो। इस पर माता ने कहा- यह कोई खरीदने की वस्तु नहीं, ये तो अपने नाथ हैं।
'नाथ' शब्द सुनकर शालिभद्र को झटका लगा तो मेरे ऊपर भी कोई नाथ है। और उसकी पराधीनता से छूटने के लिए मुझे कोई अच्छी करणी करनी होगी। उसने माता के परामर्श के अनुसार त्याग का मार्ग अपनाया और प्रतिदिन अपनी एक-एक स्त्री को छोड़ना शुरु किया।
शालिभद्र की बहन सुभद्रा ने अपने पति धन्नासेठ से अपने भाई के इस त्याग की प्रशंसा की तो उसने कहा- छोड़ना है तो सबको एक साथ छोड़ दे यह एक-एक छोड़ना तो कायरता है ? सुभद्रा ने कहा- पतिदेव कहना जितना आसान है, उतना करना नहीं। यह सुनते ही धन्ना तुरन्त उठा और शालिभद्र को साथ लेकर दोनों भगवान के चरणों में दीक्षित हो गए। विभिन्न प्रकार की तप साधना करके दोनों ने अपना कल्याण किया।