जीर्ण सेठ की भावना

उज्वल भावना से जीर्ण सेठ ने बारहवें स्वर्ग का बन्ध किया।

जीर्ण सेठ की भावना

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जीर्ण सेठ की भावना


वैशाली में जिनदत्त नामक एक श्रद्धालु श्रावक रहता था। आर्थिक स्थिति क्षीण होने के कारण उसका घर पुराना हो गया और लोग उसे जीर्णसेठ कहने लगे। वह सामुद्रिक शास्त्र का ज्ञाता भी था।

प्रभु की पद-रेखाओं का अध्ययन करने के लिए वह उद्यान में गया और भगवान को ध्यानस्थ देखकर प्रसन्न हुआ। वह प्रतिदिन भगवान के पास जाता और भगवान से आहारादि की प्रार्थना करता, पर चार माह के निरंतर प्रयास पर भी उसकी भावना पूर्ण न हो सकी।

चातुर्मास पूर्ण होने पर भगवान भिक्षा के लिए निकले और 'अभिनव' श्रेष्ठि, जिसका मूल नाम 'पूर्ण' था, के द्वार पर गये। प्रभु को देखकर सेठ ने दासी को आदेश दिया कि चम्मच भर कुलत्थ दे दे। भगवान ने उसी से चार मास के तप का पारणा किया।

पंचदिव्य वृष्टि के साथ देव-दुंदुभि हुई। उधर जीर्णसेठ भगवान के आने और उन्हें पारणा कराने की प्रतीक्षा में खड़े थे। वह भावना की अत्यन्त उच्चतम स्थिति पर पहुँच चुका था। इसी समय देव-दुंदुभिका दिव्य घोष उसके कानों में पड़ा। इस उज्वल भावना से जीर्णसेठ ने बारहवें स्वर्ग का बन्ध किया। कहा जाता है कि यदि दो घड़ी और वह देव दुंदुभि नहीं सुन पाता तो भावना के बल पर केवलज्ञान प्राप्त कर लेता ।

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