सुकौशल मुनि की कथा

सुकौशल मुनि की कथा

सुकौशल मुनि की कथा

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सुकौशल मुनि की कथा

 
संवेगरंगशाला में संक्षिप्त आराधना के सम्बन्ध में सुकौशल मुनि की कथा कही गई है :


साकेतनगर में कीर्तिधर नामक राजा राज्य करता था। उसके सहदेवी नाम की रानी तथा सुकौशल नामक पुत्र था। एक दिन राजा को तीव्र वैराग्य उत्पन्न हुआ और सुकौशल का राज्याभिषेक करके स्वयं आचार्य श्री के पास जाकर उसने संयम स्वीकार कर लिया। वहाँ से विहार कर मुनि अन्य ग्राम एवं नगरों में विचरने लगे। एक दिन कीर्तिधर मुनि विचरते हुए साकेतनगर में पधारे। एकदा रानी ने मुनि को भिक्षा के लिए नगर में भ्रमण करते हुए देखा। इससे वह विचार करने लगी- 'कहीं यह मुनि मेरे पुत्र को भी दीक्षा न दे दे!' ऐसा विचार कर रानी ने अपने सेवकों से कहकर मुनि को नगर से बाहर निकलवा दिया।

उसी समय धायमाता को रोते हुए देखकर सुकौशल ने उससे पूछा- “हे माता! आप इस प्रकार क्यों रो रही हो?" धायमाता ने राजा को सर्व सत्य वृत्तान्त बता दिया। धायमाता की बात सुनकर राजा सुकौशल वहाँ से निकलकर शीघ्र अपने पिता मुनि को वन्दन करने के लिए चल दिया। जंगल में वह अपने पिता मुनि को खोजने लगा। अचानक एक वृक्ष के नीचे ध्यान में स्थित एक मुनि को देखकर, उसने तुरन्त अपने पिता को पहचान लिया और भावपूर्वक उनके चरणों में गिरकर उन्हें वन्दन किया और बोला- "हे भगवन्! क्या अपने प्रिय पुत्र को इस तरह अग्नि से जलते हुए घर में छोड़कर पिता को दीक्षा लेना योग्य है। हे भगवन्! अभी भी आप मुझे दीक्षारूपी हाथ का आलम्बन देकर बचा लीजिए।" मुनि ने 'पुत्र को तीव्र वैराग्यभाव उत्पत्र हुए है'- ऐसा जानकर उसे दीक्षा प्रदान की।

रानी को अपने पुत्र की दीक्षा का समाचार मिला, जिसे सुनकर उसे अत्यन्त दुःख और क्रोध उत्पन्न हुआ और क्रोधावेश में वह महल से गिरकर मर गई। रानी वहाँ से मरकर मोंग्गिल नामक पर्वत पर शेरनी के रूप में उत्पन्न हुई। इधर मुनि भी विचरते हुए उसी पर्वत पर पहुंचे। वहाँ मुनि ने चार महीने ध्यान-साधना की। तत्पश्चात् शरदकाल में जब विहार करने लगे, तब मुनि को देखकर पूर्व वैर से क्रोधित बनी शेरनी ने उन पर छलांग लगाई। मुनि ने 'शेरनी का तीव्र उपसर्ग उपस्थित हुआ है- ऐसा जानकर सागार-प्रत्याख्यान किया तथा कायोत्सर्ग में खड़े हो गए। शेरनी ने मुनि को पृथ्वी पर गिराकर उनका भक्षण करना प्रारम्भ किया। उस समय मुनि उस पीड़ा को समता से सहन करते हुए चिन्तन करने लगे 'इस संसार में दुःख तो पग-पग पर है, परन्तु जैन-धर्म मिलना दुर्लभ है। यह धर्म मुझे पुण्योदय से प्राप्त हुआ है, इसलिए मेरा जन्म भी सफल है; लेकिन बस एक ही चिन्ता है कि मैं इस शेरनी के कर्मबन्थन में निमित्त बना हैं। मुझे मेरी आत्मा का शोक नहीं है, बल्कि दुःख-समुद्र में पड़ी हुई इस शेरनी का शोक है, इसलिए जिन महापुरुषों ने मोक्ष को प्राप्त कर लिया है, उनको मै भाव से नमन करता हूँ। ऐसा चिन्तन-मनन करते हुए सर्व कर्ममल को थोकर धर्म-थ्यान से शुक्ल-ध्यान में उत्तरोत्तर बढ़ते हुए अन्तकृत-केवली होकर सुकौशल राजर्षि ने सिद्धगति को प्राप्त किया।

जिस समय शेरनी ने सुकोशल को खाते-खाते उनका हाथ खाना शुरू किया, उस समय उसकी दृष्टि सुकोशल के हाथों के लांछनों (चिन्हों) पर जा पड़ी । उन्हें देखते ही इसे अपने पूर्व-जन्म का ज्ञान हो गया । जिसे वह खा रही है, वह उसी का पुत्र है, जिसपर उसका बेहद प्यार था, उसे ही वह खा रही है, यह ज्ञान होते ही उसे जो दु:ख, जो आत्म-ग्लानि हुई , वह लिखी नहीं जा सकती । वह सोचती है, हाय! मुझ सी पापिनी कौन होगी जो अपने ही प्यारे पुत्र को मैं आप ही खा रही हूँ ! धिक्कार है मुझसी मूर्खिनी को जो पवित्र धर्म को छोड़कर अनन्त संसार को अपना वास बनती है । उस मोह को, उस संसार को धिक्कार है जिसके वश हो यह जीव अपने हित-अहित को भूल जाता है और फिर कुमार्ग में फँसकर दुर्गतियों में दु:ख उठाता है । इस प्रकार अपने किये कर्मों की बहुत कुछ आलोचना कर उस शेरनी ने संन्यास ग्रहण कर लिया और अन्त में शुद्धभावों से मरकर वह सौधर्म स्वर्ग में देव हुई। सच है, जीवों की शक्ति अद्भुत् ही हुआ करती है और जैनधर्म का प्रभाव भी संसार से बड़ा ही उत्तम है । नहीं तो कहाँ तो पापिनी व्याघ्री और कहाँ उसे स्वर्ग की प्राप्ति ! इसलिए जो आत्म-सिद्धि के चाहने वाले हैं, उन भव्यजनों को स्वर्ग-मोक्ष को देनेवाले पवित्र जैन-धर्म का पालन करना चाहिए।


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