संज्ञा का थोकडा

आहार संज्ञा, भय संज्ञा, मैथुन संज्ञा, परिग्रह संज्ञा, क्रोध संज्ञा, मान संज्ञा, माया संज्ञा, लोभ संज्ञा, लोकसंज्ञा, ओघसंज्ञा

संज्ञा का थोकडा

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संज्ञा का थोकडा

(श्री पन्नवणा सूत्रपद आठ के आधार पर)

ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय के क्षयोपशम से एवं वेदनीय और मोहनीय कर्म के उदय से आत्मा में होने वाली आहारादि की इच्छा को 'संज्ञा' कहते हैं।

संज्ञा दस प्रकार की हैं, यथा-

1. आहार संज्ञा - क्षुधा वेदनीय कर्म के उदय से ग्रासादि (कवलादि) रूप आहार को ग्रहण करने की अभिलाषा होना।

2. भय संज्ञा - भय मोहनीय कर्म के उदय से प्राणी के शरीर, नेत्र, मुख आदि में रोमांच, कम्पन, घबराहट आदि होना।

3. मैथुन संज्ञा - वेद मोहनीय कर्म के उदय से मैथुन सम्बन्धी विषय-भोगों को भोगने की विकार भावना होना।

4. परिग्रह संज्ञा - लोभ मोहनीय कर्म के उदय से सचित्त, अचित्त और मिश्र पदार्थों को आसक्ति पूर्वक ग्रहण करने की अभिलाषा होना।

5. क्रोध संज्ञा - क्रोध मोहनीय कर्म के उदय से कोपवृत्ति (गुस्सा) के अनुरूप चेष्टा होना।

6. मान संज्ञा - मान मोहनीय कर्म के उदय से अहंकार, दर्प, गर्व आदि की चेष्टा होना।

7. माया संज्ञा - माया मोहनीय कर्म के उदय से छल-कपट आदि की चेष्टा होना।

8. लोभ संज्ञा - लोभ मोहनीय कर्म के उदय से पदार्थों को पाने की अभिलाषा होना।

9. लोक संज्ञा - लोक में रूढ़ किन्तु अन्धविश्वास, हिंसा, असत्य आदि के कारण हेय होने पर भी लोकरूढ़ि का अनुसरण करने की अभिलाषा होना । अथवा मतिज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से संसार के सुन्दर, रूचिकर पदार्थों को विशेष रूप से जानने की अभिलाषा होना।

10. ओघ संज्ञा - बिना उपयोग (बिना सोचे-विचारे) धुन ही धुन में किसी कार्य को करने की प्रवृत्ति होना । जैसे बिना प्रयोजन के ही किसी वृक्ष पर चढ़ जाना, बैठे-बैठे पैर हिलाना, तिनके तोड़ना आदि । अथवा मतिज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से संसार के सुन्दर, रूचिकर पदार्थों या लोकप्रचलित शब्दों के अनुरूप पदार्थों को सामान्य रूप से जानने की अभिलाषा होना।

समुच्चय जीव और 24 दण्डक के जीवों में ये दसों ही संज्ञाएँ पायी जाती हैं।

आहार, भय, मैथुन और परिग्रह संज्ञा पैदा होने के चार-चार कारण इस प्रकार हैं-

1. आहार संज्ञा- 1. पेट के खाली होने से, 2. क्षुधा वेदनीय कर्म के उदय से, 3. आहार का चिन्तन करने से और 4. आहार के दृश्य देखने से।

2. भय संज्ञा - 1. अधीरता से ( धैर्य के अभाव से ), 2. भय मोहनीय कर्म के उदय से, 3. भय का चिन्तन करने से और 4. भय के दृश्य देखने से।

3. मैथुन संज्ञा - 1. शरीर की पुष्टता से, 2. वेद मोहनीय कर्म के उदय से, 3. मैथुन सम्बन्धी चिन्तन करने से और 4. मैथुन के दृश्य देखने से।

4. परिग्रह संज्ञा - 1. अत्यन्त इच्छा-मूर्च्छा होने से, 2. लोभ मोहनीय कर्म के उदय से, 3. परिग्रह का चिन्तन करने से और 4. परिग्रह के दृश्य देखने से।

चारों गति की अपेक्षा से उपर्युक्त चारों संज्ञाओं की अल्पबहुत्व - नारकी में सबसे कम मैथुन संज्ञा वाले, उससे अधिक आहार संज्ञा वाले संख्यात गुणा, उनसे परिग्रह संज्ञा वाले संख्यात गुणा और उनसे भय संज्ञा वाले संख्यात गुणा। ( मै. आ.प.)

तिर्यंच गति में सबसे कम परिग्रह संज्ञा वाले, उनसे मैथुन संज्ञा वाले, भय संज्ञा वाले व आहार संज्ञा वाले क्रमशः संख्यात गुणा। (प.मै.भ. )

मनुष्य गति में सबसे कम भय संज्ञा वाले, उनसे आहार, परिग्रह और मैथुन संज्ञा वाले क्रमशः संख्यात गुणा। (भ.आ. प.)

देवगति में सबसे कम आहार संज्ञा वाले, उनसे भय, मैथुन और परिग्रह संज्ञा वाले क्रमशः संख्यात गुणा। ( आ.भ.मै. )


चारों गति में उत्पन्न होने वाले जीवों में कौन-कौनसी संज्ञा अधिक पायी जाती हैं ?

नारकी से आये हुए जीव में क्रोध और भय संज्ञा अधिक पायी जाती हैं।

तिर्यंचगति से आये हुए जीव में माया और आहार संज्ञा अधिक पायी जाती हैं। मनुष्यगति से आये हुए जीव में मान और मैथुन संज्ञा अधिक पायी जाती हैं।

देवगति से आये हुए जीव में लोभ और परिग्रह संज्ञा अधिक पायी जाती हैं।

दस संज्ञा को उत्पन्न करने वाले कर्म - ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय कर्म के क्षयोपशम से लोक और ओघ संज्ञा, वेदनीय कर्म के उदय से आहार संज्ञा और शेष सात संज्ञाएँ मोहनीय कर्म के उदय से होती हैं।

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