इस सृष्टिमंडल में भी कितनी ही ऐसी वस्तुएँ और मनकी इच्छाएँ रही हैं कि जिन्हें कुछ अंश में जानते हुए भी कहा नहीं जा सकता। फिर भी ये वस्तुएँ कुछ सम्पूर्ण शाश्वत या अनंत भेदवाली नहीं है। ऐसी वस्तु का जब वर्णन नहीं हो सकता तब अनन्त सुखमय मोक्षसम्बन्धी उपमा तो कहाँसे मिलेगी? गौतम स्वामी ने भगवान से मोक्ष के अनन्त सुख के विषय में प्रश्न किया तब भगवान ने उत्तर में कहा- "गौतम ! यह अनंतसुख ! मैं जानता हूँ, परन्तु उसे कहा जा सके ऐसी यहाँ पर कोई उपमा नहीं है। जगतमें इस सुखके तुल्य कोई भी वस्तु या सुख नहीं है।"
ऐसा कहकर उन्होंने निम्न आशय का एक भीलका दृष्टांत दिया था।
भद्रिक भीलका दृष्टांत
एक जंगलमें एक भद्रिक भील अपने बालबच्चों सहित रहता था। शहर आदिकी समृद्धि की उपाधिका उसे लेश भान भी न था। एक दिन कोई राजा अश्वक्रीडा के लिये घूमता घूमता वहाँ आ निकला। उसे बहुत प्यास लगी थी, जिससे उसने इशारे से भील से पानी माँगा। भील ने पानी दिया। शीतल जल से राजा संतुष्ट हुआ। अपने को भील की तरफ से मिले हुए अमूल्य जलदान का बदला चुकाने के लिये राजा ने भील को समझा कर अपने साथ लिया। नगर में आने के बाद राजा ने भील को उसने जिन्दगी में न देखी हुई वस्तुओं में रखा । सुन्दर महल, पास में अनेक अनुचर, मनोहर छत्र पलंग, स्वादिष्ट भोजन, मंद-मंद पवन और सुगन्धी विलेपन से उसे आनन्दमय कर दिया। विविध प्रकार के हीरा, माणिक, मौक्तिक, मणिरत्न और रंग-बिरंगी अमूल्य वस्तुएँ निरन्तर उस भील को देखने के लिये भेजा करता था, और उसे बाग-बगीचों में घूमने-फिरने के लिये भेजा करता था। इस प्रकार राजा उसे सुख दिया करता था। एक रात जब सब सो रहे थे तब उस भील को बालबच्चे याद आये, इसलिये वह वहाँ से कुछ लिये किये बिना एकाएक निकल पडा । जाकर अपने कुटुम्बियों से मिला। उन सबने मिलकर पूछा, "तू कहाँ था?" भील ने कहा, "बहुत सुख में। वहाँ मैंने बहुत प्रशंसा करने योग्य वस्तुएँ देखीं।"
कुटुम्बी-परंतु वे कैसी थीं? यह तो हमें बता। भील-क्या कहूँ ? यहाँ वैसी एक भी वस्तु नहीं है।
कुटुम्बी-भला ऐसा हो क्या? ये शंख, सीप, कौडा कैसे मनोहर पडे हैं ! वहाँ ऐसी कोई देखने लायक वस्तु थी?
भील-नहीं, नहीं भाई, ऐसी वस्तु तो यहाँ एक भी नहीं है। उनके सौवें या हजारवें भाग जितनी भी मनोहर वस्तु यहाँ नहीं है।
कुटुम्बी-तब तो तू चुपचाप बैठा रह, तुझे भ्रम हुआ है, भला, इससे अच्छा और क्या होगा?
हे गौतम ! जैसे यह भील राजवैभव सुख भोगकर आया भी, और जानता भी था, फिर भी उपमा योग्य वस्तु न मिलने से वह कुछ कह नहीं सकता था, वैसे ही अनुपमेय मोक्ष को, सच्चिदानन्द स्वरूपमय निर्विकारी मोक्षके सुख के असंख्यातवें भाग के भी योग्य उपमेय न मिलने से मैं तुझे नहीं कह सकता।
मोक्षके स्वरूपके विषयमें शंका करनेवाले तो कुतर्कवादी हैं, उन्हें क्षणिक सुखसंबंधी विचारके कारण सत्सुखका विचार नहीं आता । कोई आत्मिक ज्ञानहीन यों भी कहता है कि इससे कोई विशेष सुख का साधन वहाँ है नहीं, इसलिये अनंत अव्याबाध सुख कह देते हैं। उसका यह कथन विवेकपूर्ण नहीं है। निद्रा प्रत्येक मानव को प्रिय है; परन्तु उसमें वह कुछ जान या देख नहीं सकता; और यदि कुछ जानने में आये तो मात्र स्वप्नोपाधिका मिथ्यापना आता है जिसका कुछ असर भी हो । वह स्वप्नरहित निद्रा जिसमें सूक्ष्म एवं स्थूल सब जाना और देखा जा सके, और निरुपाधिसे शांत ऊँघ ली जा सके तो उसका वह वर्णन क्या कर सकता है ? उसे उपमा भी क्या दे सकता है ? यह तो स्थूल दृष्टांत है; परन्तु बाल, अविवेकी इस पर से कुछ विचार कर सके, इसलिये कहा है।
श्रीमद राजचंद्र प्रणीत
दृष्टांत कथा
हिंदी अनुवादक - श्री हंसराज जी जैन
किताब प्रकाशक -श्रीमद राजचंद्र जन्म भवन ववाणिया