पच्चीस बोल-सातवें बोले शरीर पाँच

जीव के क्रिया करने के साधन को 'शरीर' कहते हैं। शीर्यते तत् शरीरम्' इस व्याख्या के अनुसार-जो अत्यत्ति समय से लेकर प्रतिक्षण क्षीण होता रहे, बदलता रहे उसे 'शरीर' कहते हैं तथा जिसके द्वारा भौतिक सुखा-दुःख आदि का अनुभव होता है उसे 'शरीर' कहते हैं अथवा संसारी जीव जिसमें रहकर अपने शुभाशुभ कर्मों का भोग करे उसे भी शरीर' कहते हैं (भोगायतनम् शरीरम्)।

पच्चीस बोल-सातवें बोले शरीर पाँच

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पच्चीस बोल - सातवें बोले शरीर पाँच

सातवें बोले शरीर पाँच - 1. औदारिक, 2. वैक्रिय, 3. आहारक, 4. तैजस और, 5. कार्मण।

आधार-ठाणांग 5 सूत्र 395, प्रज्ञापना पद 21 सूत्र 267

शरीर - जीव के क्रिया करने के साधन को 'शरीर' कहते हैं। शीर्यते तत् शरीरम्' इस व्याख्या के अनुसार-जो अत्यत्ति समय से लेकर प्रतिक्षण क्षीण होता रहे, बदलता रहे उसे 'शरीर' कहते हैं तथा जिसके द्वारा भौतिक सुखा-दुःख आदि का अनुभव होता है उसे 'शरीर' कहते हैं अथवा संसारी जीव जिसमें रहकर अपने शुभाशुभ कर्मों का भोग करे उसे भी शरीर' कहते हैं (भोगायतनम् शरीरम्)।

शरीर के पाँच भेदों का संक्षिप्त स्वरूप इस प्रकार है
1. औदारिक शरीर- जो रक्त, मांस, मज्जा, अस्थि आदि स्थूल पुद्गलों से बना हो, उसे 'औदारिक शरीर' कहते हैं। जो शरीर उदार अर्थात् प्रधान हो एवं जो स्थूल पुद्गलों वाला हो, उसे 'औदारिक शरीर' कहते हैं। जिस शरीर में रहकर जीव अपने सभी कर्मों का क्षय कर सके, उसे भी 'औदारिक शरीर' कहते हैं। प्राण निकलने के बाद जिसका कलेवर (शव) पड़ा रहे, उसे भी'औदारिक शरीर' कहते हैं।

2. वैक्रिय शरीर-जिस शरीर में विविध अथवा विशेष प्रकार की क्रियाएँ होती हैं, उसे वैक्रिय शरीर' कहते हैं। जैसे-एक रूप होकर अनेक रूप धारण करना, छोटा-बड़ा शरीर बनाना, दृश्य-अदृश्य रूप बनाना आदि। वैक्रिय शरीर दो प्रकार का होता है - (1) भव प्रत्यय, (2) लब्धि प्रत्यय। पहला देवों और नारकों में जन्म के साथ ही होता है। दूसरा मनुष्य और तिर्यञ्चों को जप-तप आदि विशिष्ट साधना द्वारा लब्धि से प्राप्त होता है। औदारिक की तरह वैक्रिय शरीर में अस्थि-मांस आदि नहीं होते। वैक्रिय शरीरधारी के प्राण छूटने पर कपूर की तरह वैक्रिय पुद्गल बिखर जाते हैं, कलेवर पड़ा नहीं रहता।

3. आहारक शरीर-चौदह पूर्वधारी प्रमत्त अणगार, लब्धिा से अपने शरीर में से अति विशुद्ध स्फटिक के सदृश्य एक हाथ के पुतले के बराबर शरीर बनाते हैं उसे 'आहारक शरीर' कहते हैं। यह शरीर साध्वियों में नहीं होता। चौदह पूर्वधारी मुनि तीर्शकर की ऋद्धि देखने अथवा चौदह पूर्वो को चितारते समय स्वयं को शंका हो जाने पर अथवा कोई वादी आकर प्रश्न करें और उस समय उपयोग नहीं लगने पर इस आहारक शरीर को तीर्शकर या केवली के पास भेजते हैं। संशय निवारण के पश्चात् यह शरीर वहीं बिखर जाता है तथा उसमें रहे हुए आत्म-प्रदेश मुनिराज के औदारिक शरीर में प्रवेश कर जाते हैं। कोई हिंसक, क्रूर, अन्याय प्रकृति का शासक नरसंहार, पशुबलि आदि के हिंसक कार्यों में प्रवृत्त हो, समझाने पर भी नहीं माने तो एक हाथ का पुतला बनाकर उस शासक के पास भेजता है, नभ में उद्घोषणा करता है, हिंसा के दुष्परिणामों से शासक को अवगत कराता है, जिससे वह हिंसाजन्य प्रवृत्ति को बन्द कर देता है, इस प्रकार जीवदया के लिए भी आहारक लब्धि का प्रयोग किया जाता है। यह सारी प्रक्रिया अन्तर्महर्त में पुरी होजाती है।

इस सम्बन्ध में यह ध्यान रखाना चाहिए कि तीर्थकर भगवान के पास स्वयं की शंका निवारण, वादी के प्रश्न का उत्तर तथा ऋद्धि दर्शन हेतु आहारक शरीर भेजा जाता है। जबकि सामान्य केवली के पास स्वयं की शंका निवारण, व वादी के प्रश्नों का उत्तर पाने हेतु इन दो कारणों से ही आहारक शरीर भेजा जाता है, ऋद्धि दर्शन हेतु नहीं।

4. तैजस शरीर - तेजोमय पुदगलों से बना जो शरीर खाये हुए आहार के पुदगलों को पचाने का काम करता है, उसे 'तैजस शरीर' कहते हैं। शरीर में विद्यमान उष्णता व जठराग्नि इसी के कारण प्रकट होती है। विशेष साक्षाना या घोर तपस्या द्वारा व्यक्ति विशेष को तेजोलब्धि उत्पन्न होती है। जब वह उस लब्धि का प्रयोग करता है उस समय भी तैजस शरीर की मुख्यता रहती है। तेजोलब्धि उष्ण और शीत लब्धि की अपेक्षा से दो प्रकार की होती है। यह शरीर सभी ससारी जीवो में पाया जाता है।

5. कार्मण शरीर - कार्मण वर्गणाओं का वह समूह जो आत्मा के साथ एक ही क्षेत्र में दूध और पानी की तरह मिलकर रहा हुआ है तथा अन्य कर्मों एवं उनकी प्रकृतियों को भी व्यवस्थित रखाता है, वह 'कार्मण' शरीर कहलाता है। जीव और कर्म पुदगलों का आपस में अनादि सम्बन्ध है। 'कार्मण शरीर' सभी संसारी जीवों में पाया जाता है।

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